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________________ राग सोरठा गलतानमता कब आवैगा॥टेक॥ राग-दोष परणति मिट जै है, तब जियरा सुख पावैगा ।। गलता.॥ मैं ही ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मैं, तीनों भेद मिटावैगा। करता किरिया करमभेद मिटि, एक दरब लौं लावैगा॥ गलता. ।। १ ॥ निह● अमल मलिन व्योहारी, दोनों पक्ष नसावैगा। भेद गुण गुणीको नहिं है है, गुरु शिख कौन कहावैगा ।। गलता. ।। २ ।। 'धानत साधक साधि एक करि, दुविधा दूर बहावैगा। वचनभेद कहवत सब मिटकै, ज्यों का त्यों ठहरावैगा॥ गलता.॥ ३ ।। हे आत्मन् ! पुद्गल की इस औदारिक देह में व अन्य देहों में पूरण- गलन के साथ बार- बार नष्ट होता हुआ तू कब अपने शुद्ध स्वरूप में आवेगा? जब तेरे राग व द्वेष दोनों ही दूर होवेंगे तब ही यह जीव आनन्दस्वरूप को प्राप्त करेगा। ____ मैं ही ज्ञाता हूँ, मैं ही ज्ञान हूँ, मैं ही ज्ञेय हूँ तथा मैं ही अपने स्वभावों का कर्ता हूँ, मैं ही क्रिया हूँ और मैं ही कार्य हूँ - ऐसे सब भेदों को मिटाकर मैं एकमात्र आत्मद्रव्य हूँ। इन सबका समुच्चय एकरूप हूँ - जब ये भाव होंगे तब ही सुख पावेगा। ___ मैं निश्चय से मलरहित हूँ व व्यवहार दृष्टि से मलसहित हूँ। अपने निश्चय स्वरूप में शुद्ध स्वरूप में स्थिर होने पर निश्चय - व्यवहार का भेद मिट जावेगा, बेमानी हो जावेगा। गुण और गुणी का भेद नहीं रहेगा और तब गुरु शिष्य का भेद भी नहीं रहेगा। द्यानतराय कहते हैं कि मैं कब अपने निश्चयस्वरूप में अर्थात् साधक और साध्य के भेद को मिटाकर, एक होकर इस दुविधा को दूर करूँगा। वचन से कही जानेवाली भिन्न-भिन्न बातों को आत्मसात कर कब मैं अपने एक शुद्धरूप में, जैसा हैं उसी रूप में, स्थिर होऊँगा! झानत भजन सौरभ २६५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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