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राग दुलरीकी ढाल श्रीजिनदेव! न छांडि हों, सेवा मन वच काय हो॥ टेक।। सब देवनिके देव हो, सब गुरुके गुरुराय हो। श्री.॥ गरभ जनम तप ज्ञान शिव, पंचकल्यानक-ईश हो। पूर्जे त्रिभुवनपत्ति सदा, तुमको श्रीजगदीश हो॥ श्री.॥१॥ दोष अठारह छय गये, गुणहि छियालिस खान हो। महा दुखीको देत हो, बड़े रतनको दान हो॥श्री.॥ २ ॥ नाम थापना, दरबको, भाव खेत अरु काल हो। षट विधि मंगल जे करें, दुख नासै सुखमाल हो॥ श्री. ॥३॥ एक दरब कर जो भजै, सो पावै सुख सार हो। आठ दरब ले हम जजैं, क्यों नहिं उत्तर पार हो॥श्री.॥ ४॥ गुन अनन्त भगवन्तजी, कहि न सके सुरराय हो। बुद्धि तनकसी मोविएँ, तुम ही होहु सहाय हो॥ श्री.॥५॥ तातै बन्दों जगगुरू! बन्दों दीनदयाल हो। बन्दों स्वामी लोकके, बन्दों भविजनपाल हो॥ श्री.॥६॥ विनती कीनी भावसों, रोम रोम हरषाय हो। इस संसार असार में, 'द्यानत' भक्ति उपाय हो । श्री.॥ ७॥
हे भव्य! मन, वचन और काय से श्री जिनदेव की सेवाभक्ति को मत छोड़ना। श्री जिनेन्द्रदेव ही सब देवों के देव हैं, सब गुरुओं के गुरु अर्थात् परमगुरु हैं।
हे जिनेन्द्रदेव ! हे तीर्थंकर ! आपके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष -- ये पाँच कल्याणक होते हैं। हे तीन लोक के नाथ! आप जगत के ईश्वर हो, जिनकी सदैव पूजा होती है।
धानत भजन सौरभ
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