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प्रभु! तुम नैनन- गोचर नाहीं ॥ टेक ॥।
।। १ ॥
मो मन ध्यावै भगति बढ़ा, झिना जनम-जरा- मृत-रोग- वैद हो, कहा करैं कहां जाहीं । प्रभु ।। २ । 'द्यानत' भव- दुख-आग- माहितैं, राख चरण-तरु छाहीं ॥ प्रभु ॥ ३ ॥
हे प्रभु! आप इन्द्रिय-गोचर नहीं हो, इन नेत्रों से दिखाई नहीं देते, इस शरीर से देखे जाने नहीं जाते ।
मेरा मन आपका ध्यान करता है और आपके प्रति अपनी भक्ति भावना को बढ़ाता है, उसमें वृद्धि करता है। मन में कोई मोह नहीं है।
आप जन्म, बुढ़ापा, मृत्युरूपी रोग का निवारण करनेवाले वैद्य हो। आपको छोड़कर हम कहाँ जावें, क्या करें?
द्यानतराय कहते हैं कि मुझे भव भव के दुःखों की दाह से, आग से बाहर निकालकर अपने चरण-रूपी वृक्ष की छाँह में रख लीजिए, शरण दीजिए अर्थात् तपन को दूरकर शीतलता प्रदान कीजिए ।
द्यानत भजन सौरभ
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