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(१९८) मैं नूं भावैजी प्रभु चेतना, मैं नूं भावै जी.॥टेक॥ गुण रतनत्रय आदि विराजै, निज गुण काहू देत ना ।। मैं नूं.॥१॥ सिद्ध विशुद्ध सदा अविनाशी, परगुण कबहूं लेत ना। मैं . ॥ २ ॥ 'द्यानत' जो ध्याऊं सो पाऊं, पुद्गलसों कछु हेत ना| मैं नूं.॥३॥
...... ..... मैं प्रभु के चैतन्य गुण की, चैतन्य स्वरूप की भावना करता हूँ, मुझे वह रुचिकर लगती है।
रत्नत्रय आदि गुणसहित वह विराजमान है। वे अपने गुण किसी को नहीं देते।
सिद्ध स्वरूप में वे पूर्ण विशुद्ध होकर सदा अविनाशी हैं । पर के गुणों को वे ग्रहण नहीं करते।
द्यानतराय कहते हैं कि मैं जो उनका ध्यान करता हूँ तो मुझे अपने स्वयं के स्वरूप की प्रतीति होती है। उसका पुद्गल से कोई संबंध नहीं है, कोई नाता नहीं है।
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यामत भजन सौरभ