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(१८४) तुम अधम-उधारन-हार हो, हम भगतनिके दुख हरो। टेक ।। में अय-आकर तुम करुणाकर, जोग बन्यो यह सार हो॥ तुम.॥१॥ पूत कूपूत होत है स्वामी, तात न निठुर विचार हो। तुम.॥२॥ 'द्यानत' दीन अनाथ राखि लै, चरन शरन आधार हो॥ तुम.॥३॥
हे प्रभु! आप पापियों का उद्धार करनेवाले हो, हम आपके भक्त हैं अतः हमारा भी दुःख दूर करो, मिटाओ।।
मैं पापों की खान हूँ, भंडार हूँ; तुम करुणा करनेवाले हो, करुणा के भण्डार हो। अब मेरा आपसे संयोग बना इसमें यही सार है कि आप मेरे दुःख दूर करें।
हे स्वामी ! पुत्र कुपुत्र भी हो जाता है पर पिता के उसके प्रति निष्ठुरता के विचार नहीं होते।
द्यानतराय कहते हैं कि मैं दीन व अनाथ हूँ। मुझे अपनी शरण में ले लो, रख लो। इन चरणों की शरण ही मेरा एकमात्र सहारा है।
अघ = पापः आकर = उत्पत्ति स्थान, खान।
द्यानत भजन सौरभ