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________________ (१७४) जिन जपि जिन जपि, जिन जपि जीयरा॥ टेक॥ प्रीति करि आवै सुख, भीति करि जावै दुख, नित ध्यावै सनमुख, ईति नावै नीयरा॥जिन. ॥१॥ मंगल प्रवाह होय, विघनका दाह धोय, जस जागै तिहुँ लोय, शांत होय हीयरा ॥ जिन. ॥ २॥ 'धानत' कहां लौँ कहै, इन्द्र चन्द्र सेवा बहै, भव दुख पावकको, भक्ति नीर सीयरा॥जिन. ॥३॥ हे जीव ! तू जिनेन्द्र का वन्दन, स्तवन व नमन करते हुआ उनका निरंतर जाप कर। उनकी भक्ति करने से सुख आता है, उनके स्मरण से दुःख दूर हो जाते हैं। जो अपने ध्यान में उन्हें निरन्तर सम्मुख रखता है उसके सारे भय, दु:ख डरकर दूर हो जाते हैं । अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी, चूहे, पक्षी, राज्य पर आक्रमण आदि बाधाएँ निकट नहीं आती। जिनेन्द्र-स्मरण से पापनाशन की एक धारा निरंतर बहती है । विघ्न-अड़चनों की पीड़ा दाह धुल जाती हैं, मिट जाती है । तीन लोक में यश होता है और हृदय में, पन में शान्ति होती है। द्यानतराय कहते हैं कि कहाँ तक कहें - जिनेन्द्र का स्मरण, उनकी भक्ति भव-भव की दुःखरूपी अग्नि को शमन करने के लिए नीर को शीतल अनुभूति के समान है। इन्द्र. चन्द्र आदि देवगण उनकी सेवा हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। ईति : प्राकृतिक आपदाएं: भौति - भय; नादै । न आवे । २०४ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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