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________________ (१६४) राग आसावरी जोगिया ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै ।। टेक॥ राज सम्पदा भोग भोगवै, वंदीखाना धारै ।। ज्ञानी.॥ धन जोवर परिवार आपत, ओछी ओर निहारै । दान शील तप भाव आपतै, ऊंचेमाहिं चितारै । ज्ञानी.॥१॥ दुख आये धीरज धर मनमें, सुख वैराग सँभारै। आतम दोष देखि नित झूरै, गुन लखि गरब बिडार॥ ज्ञानी. ॥ २॥ आप बड़ाई परकी निन्दा, मुखत नाहिं उचारै । आप दोष परगुन मुख भाषे, मननै शल्य निवारै ॥ ज्ञानी. ॥ ३ ।। परमारथ विधि तीन जोगसौं, हिरदै हरष विथारै। और काम न करै जु करै तो, जोग एक दो हार॥ ज्ञानी. ॥४॥ गई वस्तुको सोचै नाहीं, आगमचिन्ता जारै । वर्तमान व विवेकसौं, ममता बुद्धि विसारै ।। ज्ञानी.॥ ५ ॥ बालपने विद्या अभ्यासै, जोवन तप विस्तारै। वृद्धपने सन्यास लेयक, आतम काज सँभारै ॥ ज्ञानी.॥६॥ छहों दरब नव तत्त्वमाहिते, चेतन सार निकारै। 'द्यानत' मगन सदा तिसमाहीं, आप तरै पर तारै ।। ज्ञानी.॥७॥ ज्ञानी इसप्रकार विचार कर अपने ज्ञान में विचरण करता है। वह राज, वह सम्पदा आदि के भोग भोगता है, पर इस स्थिति को वह मात्र कारागार समझता है। उसे ये धन, यौवन, परिवार - ये सब अपनी स्थिति से विपरीत नीचे की और दिखाई देते हैं । दान, शील, तप - इन भावों की ओर देखना, उनका चिन्तन, ऊपर की ओर दृष्टि होती है, ऊपर की ओर दिखाई देते हैं । द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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