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________________ (१६३) राग जैजेंवंती ज्ञान ज्ञेयमाहिं नाहि, ज्ञेय हू न ज्ञानमरहिं, ज्ञान ज्ञेय आन आन, ज्यों मुकर घट है। टेक॥ ज्ञान रहै ज्ञानीगाहि, ज्ञान बिना ज्ञानी नाहि, . . . दोऊ एकमेक ऐसे, जैसे श्वेत पट है। ज्ञान.॥१॥ ध्रुव उतपाद नास, परजाय नैन भास, दरवित एक भेद, भावको न ठट है। ज्ञान.॥२॥ 'द्यानत' दरब परजाय विकलप जाय, तब सुख पाय जब, आय आप रट है। ज्ञान.॥३॥ हे ज्ञानी। ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य वस्तुओं में स्वयं में ज्ञान नहीं होता/जाता। इस ही भाँति ज्ञान में ज्ञेय नहीं होता। ज्ञान और ज्ञेय दोनों अलग-अलग हैं। जैसे घट व दर्पण दोनों अलग-अलग हैं। जैसे दर्पण में घट का प्रतिबिम्ब झलकता है घर उस दर्पण में नहीं होता, दर्पण और घट अलग-अलग हैं, उसी प्रकार ज्ञान में ज्ञेय झलकता है, ज्ञेय ज्ञान में नहीं जाता । ज्ञानी अलग है और ज्ञेय अलग है। ज्ञान ज्ञानी में रहता है। बिना ज्ञान के ज्ञानी नहीं होता। दोनों ऐसे एकमेक हैं जैसे कोई श्वेत उज्ज्वल वस्त्र होता है, वस्त्र और उसका श्वेतपना एकमेक होता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, ये पर्याय आँखों से दिखाई देती हैं । ये द्रव्य के हो भेद हैं, भावों की रचना नहीं है। द्यानतराय कहते हैं कि द्रव्य और उसकी पर्याय का विकल्प छूट जाए अर्थात् दोनों समग्र दीखें तब सुख का अनुभव होता है और स्त्र मात्र स्व रह जाता है। १९० द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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