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(१५८) हो स्वामी! जगत जलधितै तारो॥ टेक ॥ मोह मच्छ अरु काम कच्छतें, लोभ लहरतें उबारो।। हो. ॥ १॥ खेद खारजल दुख दावानल, भरम भंवर भय टारो॥ हो.।।२।। 'द्यानत' बार-बार यौं भाषै, तू ही तारनहारो॥हो.॥३॥
हे स्वामी ! मुझे इस भव-समुद्र से तारिए, पार लगाइए।
इस संसार-सागर में मोहरूपी मच्छ, कामरूपी कछुवा और लोभ की ऊँची लहरें हैं, मुझे इनसे बाहर निकालो अर्थात् तृष्णा और लोभ की ऊँची लहरों में जहाँ मोहरूपी मच्छ व कामरूपो कच्छ निवास करते हैं, पलते हैं, विचरण करते हैं, उससे मुझको अलग कीजिए, बाहर निकालिए।
इस भव-समुद्र में खेदरूपी खारा जल है । दुःख का दावानल धधक रहा है, उसमें भ्रम का भँवर पड़ा हुआ हैं, उसके भय से मुझे मुक्त करो, दूर करो।
धानतराय बार-बार यह ही कहते हैं कि हे प्रभु! तू ही मेरा तारनहार है, मुझे भत्र-समुद्र से पार उतारने हेतु सहारा है, आलंबन है।
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धानत भजन सौरभ