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________________ (१५७) राग मल्हार हम तो कबहुँ न निज घर आये॥ टेक ॥ पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये॥हम तो.॥ परपद निजपद मानि मगन है, पर परनति लपटाये। शुद्ध बुद्ध सुखकंद मनोहर, आतम गुण नहिं गाये॥ हम तो. ॥१॥ नर पशु देव नरक निज मान्यो, परजयबुद्ध कहाये। अमल अखंड अतुल अविनाशी, चेतन भाव न भाये। हम तो.॥२॥ हित अनहित कछु समझ्यो नाहीं, मृगजलबुध ज्यों धाये। 'द्यानत' अब निज-निज, पर-पर है, सदगुरु वैन सुनाये॥हम तो. ॥३॥ हे आत्मन् ! हम कभी भी अपने घर वापस नहीं आए अर्थात् हमने कभी भी अपनी आत्मा का चिन्तवन नहीं किया। स्वस्थान को छोड़कर अन्यत्र अर्थात् पर में हो हम भटकते रहे और अनेक बार अनेक नाम धारण किए अर्थात् बहुत बार अनेक भिन्न-भिन्न पर्यायों में अनेक नामों से जाने जाते रहे। पर पद को ही हमने अपना पद-स्थान मानकर उसमें हो मगन हो गए, अपनी आत्मा के गुणों को नहीं पहचाना, चिन्तवन नहीं किया और पर-परिणति में उलझते रहे, उनसे लिपटे रहे। यह आत्मा मूल में तो शुद्ध है, ज्ञानवान है, सुख का पुंज है, सुन्दर है। उस आत्मा का चिन्तवन नहीं किया। ___ चारों गतियों में भ्रमण करते हुए देह को ही अपना माना और पर्यायों में ही बद्धि खपाते रहे, लगाए रहे। यह आत्मा निर्मल, अखंड व अविनाशी है। इस प्रकार चैतन्य के गुणों की भावना ही नहीं आयी। ___अपना हित-अहित क्या है, उसे जाना ही नहीं और न समझा। जैसे रेगिस्तान में हरिण मरीचिका के कारण मिट्टी के चमकते कणों को पानी समझकर दौड़ता है, वैसे ही हम भी सुख की खोज में भौतिक वस्तुओं की और भागते रहे । द्यानतराय कहते हैं कि सत्गुरु ने अब यह बोधि दी है कि यह आत्मा ही मात्र अपना है और इससे भिन्न सब पर ही पर है । द्यानत भजन सौरभ १८३
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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