SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .:::.:. .... ... ..१५४) शुद्ध स्वरूपको वंदना हमारी॥टेक॥ एक रूप वसुरूप विराजै, सुगुन अनन्त रूप अविकारी॥शुद्ध.॥१॥ अमल अचल अविकलप अजलपी, परमानंद चेतनाधारी॥ शुद्ध. ॥२॥ 'द्यानत' द्वैतभाव तज हुजै, भाव अद्वैत सदा सुखकारी॥शुद्ध॥३॥ हम आत्मा के शुद्ध स्वरूप की वंदना करते हैं । वह सदा एकरूप है। शिवरूप में, अपने शुद्धरूप में विराजित है, अनन्त गुणसहित व दोषरहित है। बह मलरहित-निर्मल, स्थिर, विकल्परहित, अवर्णनीय, परम आनन्द का धारी है, चैतन्य है। __ द्यानतराय कहते हैं कि द्वैतभाव को छोड़कर मात्र अपने स्वभाव में, अद्वैत में ठहरना सुखकारी है अर्थात् अपने आत्मा में ही ध्यानमग्न होना, स्थिर होना सुखकारी है। वसुरूप - शुद्ध रूप छानत भजन सौरभ १७९
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy