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________________ अरे चेतन ! तुम तो बहुत चतुर हो, सयाने हो । वह तुम्हारी चतुराई कहाँ गई ? थोड़े से इन्द्रिय-विषयों के सुख के कारण, सदा रहनेवाली ऋद्धि को तुम गँवा बैठे हो, भूल रहे हो ! अरे राजा ! इन्द्रिय विषयों में सुख नहीं है। इन विषयों का सेवन करने पर मेरु के समान ऊँचा दुःख है। अरे मूर्ख! तब तूने यह कैसा स्यानापन किया है कि इन विषयों से लिपटा हुआ है ! 4 इस जगत में कुछ भी स्थिर नहीं रहता है। इसे तूने रहने के योग्य क्यों मान लिया? क्यों स्वीकार किया? क्या तुझे कुछ भी प्रकट दिखाई नहीं देता, या तूने भाँग खा रखी है जिससे सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो गई ! इस जगत में दुःख सहते हुए तुम्हें अकाल त गए। ये इन्द्रिय-विषय और कषाय ही तेरे महान शत्रु हैं। यह चेतन तेरा शत्रु नहीं है। ख्याति, यश, लाभ और पूजा-मान के लिए तूने अपना यह बाह्यवेश बना रखा है। तूने परमतत्व को, वस्तु स्वरूप को नहीं समझा, व्यर्थ में समय गँवा रहा है । यह नरदेह बहुत दुर्लभ हैं। इसे पाकर तुमने क्या कार्य सम्पन्न किया ? स्त्री और धन के लिए तूने अमूल्य धर्म को खो दिया । घट-घट में, प्रत्येक प्राणिदेह में मुझे अनन्त शक्तिशाली आत्मा दिखाई देती है पर मूर्ख उसे समझ नहीं पाते। जैसे नाभि में रखी कस्तूरी से अनजान मृग उसके लिए सब दिशाओं में दौड़ता फिरता है । पर आत्मा घट-घट में, प्रत्येक प्राणिदेह में व्याप्त होने की शक्तिवाला है, वह देह नहीं, वह देह-सा नहीं है, वह देह में रहकर भी देह से न्यारा है। अरे ज्ञान पर आए आवरण को जरा हटाकर तो देख, तुझे अपना चैतन्य रूप दिखाई देने लगेगा। द्यानतराय कहते हैं कि जो मन को निर्मलकर दशधर्म सुने और गावे वह संसार - समुद्र से पार होकर मुक्तिरूपी लक्ष्मी को पाता है। द्यानत भजन सौरभ १७१
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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