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________________ (१४१) राग ख्याल लागा आतमरामसों नेहरा ॥ टेक॥ ज्ञानसहित मरना भला रे, छूट जाय संसार। धिक्क! परौ यह जीवना रे, मरना बारंबार ॥लागा.॥ १॥ साहिब साहिब मुंहत कहते, जानैं नाहीं कोई। जो साहिबकी जाति पिछार्ने, साहिब कहिये सोई॥ लागा.॥२॥ जो जो देखौ नैनोंसेती, सो सो विनसै जाई। देखनहारा मैं अविनाशी, परमानन्द सुभाई ॥ लागा. ॥३॥ जाकी चाह करैं सब प्रानी, सो पायो घटमाहीं। 'द्यानत' चिन्तामनिके. आये, चाह रही कछ नाहीं ॥ लाग.॥ ४॥ अरे भाई! अपनी आत्मा के प्रति मेरा मन लगा है, उससे अत्यन्त प्रीति उत्पन्न ज्ञान सहित अर्थात् पूरे होश-हवास के साथ मरना श्रेष्ठ है जिससे यह संसार ही छूट जाए। बार-बार जन्म-मरण का क्रम धिक्कार है, यह क्रम टूट जाए .. मिट जाए। अरे वचन से भगवान का नाम बोलते-बोलते भी उसे कोई जानता नहीं। जो भगवान के गुणों का, उसके स्वरूप व जाति का ज्ञान हो जाए तो वह स्वयं साहिब हो जाए। __ जो-जो भी नेत्रों से दौख रहा है वह सब ही विनाश को प्राप्त होता जाता है। अरे मैं ही एकमात्र देखने-जाननेवाला चैतन्य आत्मा हूँ, जो अविनाशी है और परम आनन्द स्वभाववाला है। जिस (परमात्मा) की चाह सब करते हैं, अरे वह तो अपने अन्दर ही है। अपनी ही अनुभूति में आने योग्य है । द्यानतराय कहते हैं कि ऐसे चिन्तामणि स्वरूप आत्मा की समझ आने पर अन्य किसी वस्तु की चाह शेष नहीं रहती। धानत भजन सौरभ १६३
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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