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(१३९) लाग रह्यो मन चेतनसों जी॥टेक ॥ सेवक सेव सेव सेवक मिल, सेवा कौन करै पनसों जी॥१॥ ज्ञान सुधा पी यम्यो विषय विष, क्यों कर लागि सकै तनसौं जी॥२॥ 'द्यानत' आप-आप निरविकलप, कारज कवन भवन निवसों जी॥३॥
मेरा मन अपने चैतन्य स्वभाव में लग रहा है अर्थात् मेरे मन की चैतन्य स्वभाव में ही रुचि हो रही है।
जब सेवक (मन) व सेव्य (सेवा किये जाने योग्य चेतन/आत्मा) परस्पर मिल गये हैं एक हो गये हैं तो अब कौन नौकर की भाँति (पारिश्रमिक से) सेवा
करे?
जब ज्ञानामृत पीकर, इन्द्रिय-विषयों के विषरूपी सुखों को छोड़ दिया, फिर ऐसे तन से लगाव क्यों रहेगा?
द्यानतराय कहते हैं कि आप अपने आपमें रहो तो कोई विकल्प ही शेष नहीं रहे (निर्विकल्प हो जाओगे) फिर कौनसा कार्य है जिसके लिए इस भवन में (देह में) रह रहे हो?
पण - पारिश्रमिक, मजदूरी।
द्यानत भजन सौरभ
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