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________________ ( १३१ ) भैया! सो आतम जानो रे ! ॥ टेक ॥ जाके बसतैं बसत है रे, पाँचों इन्द्री गाँव । जास बिना छिन एकमें रे, गाँव न नाँव न ठाँव ॥ भैया ॥ १ ॥ आप चलै अरु ले चलै रे, पीछें सौ मन भार । ता बिन गज हल ना सके रे, तन खींचै संसार ॥ भैया ॥ २ ॥ जाको जारें मारतैं रे, जरै मरै नहिं कोय | जो देख सब लोककों रे, लोक न देख सोय ॥ भैया ॥ ३ ॥ घटघटव्यापी देखिये रे, कुंथू गजसम रूप । जाने माने अनुभवै रे, 'द्यानत' सो चिद्रूप ॥ भैया ॥ ४ ॥ भैया! अपनी आत्मा को जानो जिसके बसने से पाँच इन्द्रियोंवाला गाँव (देह) बस जाता है, सक्रिय हो जाता है। जिसके अभाव में एक ही क्षण में न वह गाँव (देह) रहता है और न उसका नाम रहता है और न कोई ठिकाना ही रहता है, उस आत्मा को जानो । - जब तक शरीर में आत्मा रहती है तब तक यह शरीर अपने आप चलता है। और अपने साथ सौ मन का भार भी लिये चलता है। इसके बिना (आत्मा के बिना) शरीर एक गज भी नहीं हिल सकता फिर तो उस शरीर को संसार के लोग खींचते हैं। इस तन को जलाने से, मारने से वह आत्मा न जलता है और न भरता है, वह सारे लोक को देखता है, पर वह लोक को दिखाई नहीं देता, उस आत्मा को जानो । यह आत्मा घट-घट में, प्रत्येक शरीर में है। चाहे वह कुंथु-सी छोटी देह हो या हाथी के समान बड़ा रूप आकार हो । द्यानतराय कहते हैं कि जो उस आत्मा को जानता व मानता है और अनुभव करता है, वह ही चिद्रूप है । छानत भजन सौरभ १५२ :..
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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