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________________ (१२९) राग काफी भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे॥ टेक ।। भव दश आठ उस्वास स्वास में, साधारन लपटाया रे॥ भाई.॥ काल अनन्त यहां तोहि बीते, जब भई मंद कषाया रे। तब तू तिस निगोद सिंधूत, थावर होय निसारा रे॥ भाई.॥१॥ क्रम क्रम निकस भयो विकलत्रय, सो दुख जात न गाया रे। भूख प्यास परवश सहि पशुगति, वार अनेक विकाया रे॥ भाई ॥२॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, पुतरी अगन जलाया रे। सीत तपत दुरगंध रोग दुख. जानैं श्रीजिनराया रे॥भाई.॥ ३॥ भ्रमत भ्रमत संसार महावन, कबहूँ देव कहाया रे। लखि परविभौ सह्यौ दुख भारी, मरन समय बिललाया रे॥ भाई.॥४॥ पाप नरक पशु पुन्य सुरग वसि, काल अनन्त गमाया रे। पाप पुन्य जब भये बराबर, तब कहुँ नरभव पाया रे॥ भाई ॥५॥ नीच भयो फिर गरभ खयो फिर, जनमत काल सताया रे! तरुणपनै तू धरम न चेते, तन-धन-सुत लौ लाया रे॥ भाई. ॥ ६॥ दरबलिंग धरि धरि बहु मरि तू, फिरि फिरि जग भमि आया रे। 'धानत' सरधाजुत गहि मुनिव्रत, अमर होय तजि काया रे भाई. ॥७॥ अरे भाई ! ज्ञान के बिना इस जीव ने बहुत दुःख पाए हैं । निगोदकाय में एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण तक इसने किया है। इसप्रकार निगोद में अनन्तकाल बीत जाने पर. जब कषायों में मंदता आई तब जीव निगोदकाय के समुद्र से बाहर होकर निकलकर स्थावर पर्याय में उत्पन्न हुआ। फिर क्रम से वहाँ से निकल कर दो, तीन, चार इन्द्रिय अर्थात् विकलेन्द्रिय झानत भजन सौरभ १४९
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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