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रहती है इसलिए बार-बार उन्हीं पुद्गल-परमाणुओं को भोगता है और बारबार उनका त्याग करता है । इस प्रकार वमन करके तू फिर उसी को खा जाता है और तुझे ग्लानि नहीं होती?
इस लोक में केवल आत्मा के आठ प्रदेश स्थिर रहते हैं, उसके अलावा कहीं स्थिरता नहीं है । तूने किस स्थान पर जन्म नहीं लिया और किस स्थान पर मरण नहीं किया -- ऐसा स्थान तो केवलज्ञानी ही जानते हैं अर्थात् तू सब पर्यायों में जन्म-मरण कर चुका है।
जितने भव तूने अब तक धारण किए हैं उनके नख-केश एकत्रित किए जाएँ तो वे सुमेरु पर्वत से भी ऊँचे हो जायें अर्थात् उससे भी अधिक ऊँचा उनका ढेर हो तो ऐसा जमायें और समायों में बर्णल हैं।
प्रत्येक जन्म में अपनी माता के स्तनों का जितना दूध पिया है उसका परिमाण किया जाए तो वह सब भी वह समुद्र से कहीं अधिक हो जाये ! तो भी तेरा चित्त उससे अभी अघाया नहीं है, धाया नहीं है।
जब-जब तू मरा तो तेरे मरण पर तेरी माता आदि रोई, उनके अश्रुओं को एकत्र किया जाए तो उसका परिमाण क्षीर-समुद्र से भी अधिक हो जाए। फिर भी तुझे भय नहीं हुआ? गर्भ में आना, वहाँ पनपना (बढ़ना), फिर जन्म लेना, बचपन के दुःख ये सब तूने अनन्त बार भोगे हैं, सहे हैं । यह चेतन, अनेक बार द्रव्य लिंग धारण करके, शरीर से मुनि होकर देह को छोड़ चुका है, उसका कोई प्रमाण/माष ही नहीं है।
बिना समताभाव के तूने ये सब दुःख भोगे हैं। अब तो सयाने तू चेत । द्यानतराय कहते हैं कि ज्ञानामृत पीकर तू अजर, अमर, कभी न क्षय होनेवाला व कभी न मरनेवाला पद/स्थान पा ले ।
छर्दि - वपन।
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द्यानत भजन सौरभ