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________________ (१२७) राग आसावरी जोगिया भाई! ब्रह्म विराज कैसा?॥टेक॥ जाको जान परमपद लीजे, ठीक करीजे जैसा ॥ भाई. ।। एक कहे यह पवन रूप है, पवन देहको लाग] जब नारीके उदर समावै, क्यों नहिं नारी जागै॥भाई. ॥१॥ एक कहै यह बोलै सो ही, वैन कानतें सुनिये। कान जीवको जानैं नाहीं, यह तो बात न मुनिये।। भाई, ॥ २॥ एक कहै यह फूल-वासना, बास नाक सब जाने। नाक ब्रह्मको वेदै नाहीं, यह भी बात न माने। भाई.॥३॥ भूमि आग जल पवन व्योम मिलि, एक कहै यह हूवा। नैनादिक तत्त्वनिको देखें, लखें न जीया मूवा॥ भाई.॥४॥ धूप चाँदनी दीप जोतसौं, ये तो परगट सूझै! एक कहै है लोहूमें सो, मृतक भरो नहिं बूझै॥ भाई.॥५॥ एक कहै किनहू नहिं जाना, ब्रह्मादिक बहु खोजा। जानौ जीव कह्यौ क्यों तिनने, भा जान्यो होजर॥ भाई ॥६॥ इत्यादिक मतकल्पित बातें, तो बोलैं सो विघटै। 'द्यानत' देखनहारो चेतन, गुरुकिरपातै प्रगटै।। भाई. ॥७॥ हे भाई! ब्रह्म (आत्मा) कैसा शोभित होता है, उसका स्वरूप कैसा है? जिसके वास्तविक स्वरूप को जानकर उसके स्वभाव के अनुरूप आचरण करने पर परमपद अर्थात् श्रेष्ठपद मोक्ष की प्राप्ति होती है! यानत भजन सौरभ १४५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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