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राग आसावरी जोगिया भाई कौन कहै घर मेरा॥टक : :.. . : . . . . जे जे अपना मान रहे थे, तिन सबने निरवेरा॥भाई.॥ प्रात समय नृप मन्दिर ऊपर, नाना शोभा देखी। पहर चढ़े दिन काल चालतें, ताकी धूल न पेखी ॥भाई.॥१॥ राज कलश अभिषेक लच्छमा, पहर चढ़ें दिन पाई। भई दुपहर चिता तिस चलती, मीतों ठोक जलाई। भाई, ।। २॥ पहर तीसरे नाचैं गावै, दान बहुत जन दीजे। सांझ भई सब रोवन लागे, हा-हाकार करीजे॥भाई.।। ३ ॥ जो प्यारी नारीको चाहै, नारी नरको चाहै। वे नर और किसीको चाहैं, कामानल तन दाहै भाई. ।। ४॥ जो प्रीतम लखि पुत्र निहोरै, सो निज सुतको लोर। सो सुत निज सुतसों हित जोरै, आवत कहत न और॥ भाई.॥ ५॥ कोड़ाकोड़ि दरब जो पाया, सागरसीम दुहाई। राज किया मन अब जम आवै, विषकी खिचड़ी खाई। भाई.॥६॥ तू नित पोखै वह नित सोखै, तू हारै वह जीते। 'द्यानत' जु कछु भजन बन आवै, सोई तेरो मीतै॥ भाई, ॥७॥
अरे भाई ! कौन कहता है कह सकता है कि यह घर मेरा है ! जो-जो इसको अपना मान रहे थे उन सभी ने इसको छोड़ दिया है । सुबह के समय राजा ने मन्दिर/महल के ऊपर कई प्रकार के शोभारूप देखे, पर एक पहर दिन चढ़ने पर उसकी धूल भी नहीं देख पाये।
द्यानत भजन सौरभ