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________________ ( १२३ ) राग गौड़ी भाई ! अब मैं ऐसा जाना ॥ टेक ॥ पुदगल दरब अचेत भिन्न है, मेरा चेतन वाना ॥ भाई. ॥ कलप अनन्त सहत दुख बीते, दुखकौं सुख कर माना । सुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं कर्मनतैं आना ।। भाई ॥ १ ॥ जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशिकी ठौर बिहाना। भूल मिटी निजपद पहिचाना, परमानन्द - निधाना। भाई. ॥ २ ॥ गूंगे का गुड़ खाँय कहैं किमि, यद्यपि खाद पिछाना । 'द्यानत' जिन देख्या ते जानें, मेंढक हंसपखाणा ॥ भाई ॥ ३ ॥ अरे भाई ! मैंने अब यह जान लिया है कि पुद्गल चेतनारहित है, अचेतन हैं। मेरा आत्मा चेतन है । आत्मा व पुद्गल दोनों भिन्न हैं । अनन्त कल्प दुःख सहन करते हुए बीत गए। मैंने दुःख को ही सुख मान लिया। सुख और दुःख दोनों कर्मों की अवस्थाएँ हैं। मैं तो कर्मों से अन्य हूँ, अलग हूँ, भिन्न हूँ। जहाँ सुबह / १ भोर थी वहाँ रात हो गई। रात के बाद फिर सुबह होगी, इस प्रकार सुख-दुख, पुण्य-पाप का क्रम चलता रहता है। पर ये भी अलग-अलग, भिन्न-भिन्न नहीं हैं, ये तो कर्म ही हैं। जब यह भूल मिट गई, श्री जिनेन्द्र के चरणकमलों का आश्रय लिया और निज को पहचाना तब परमानन्द की प्राप्ति हुई । १३८ - गूँगा यद्यपि गुड़ खाकर उसका स्वाद जानता है, पर उसे व्यक्त करने में, कहने में असमर्थ होता है । उसी भाँति मैंने चेतनरूप को जाना पहचाना, अनुभव किया पर उस अनुभूति को वचनों द्वारा कहा नहीं जा सकता । द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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