________________
(१२२) राग पंचम
भम्यो जी भम्यो, संसार महावन, सुख तो कबहुँ न पायो जी ।। टेक॥ पुदगल जीव एक करि जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायोजी ।। भम्यो. ॥ मनवचकाय जीव संहारे, झूठो बचन बनायो जी। चोरी करके हरष बढ़ायो, विषयभोग गरवायो जी।भम्यो. ॥१॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी। गरभ जनम नरभव दुख देखे, देव मरत बिललायो जी।भम्यो. ॥२॥ 'धानत अब जिनवचन सुनै मैं, भवमल पाप बहायो जी। आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चित लायो जी।भम्यो.॥३।
मैं इस संगाररूपी महावन में भटकता रहा है। इसमें मुझे सुख कहीं भी नहीं मिला। मेरी श्रान्ति यह ही रही कि मैंने जीव व पुदगल दोनों को एक-अभिन्नमिला हुआ जाना, जिसके कारण मुझे इनके भिन्न-भिन्ना अस्तित्व का भेदज्ञान ही नहीं हुआ, न ऐसा भेद करना मुझे रुचा। ___ मन, वचन और काय से अनेक जीवों का घात किया, झूठ बचन बोला और उनका सहारा लिया । दूसरों की वस्तुओं को चुराकर प्रसन्न हुआ और इन्द्रिय-विषयों में रत रहा। उन्हें भोगकर घमण्ड से फूला रहा इसलिए कभी सुख नहीं पाया।
बहुत बार नरक गति में छेदन-भेदन के दु:ख भोगे व अनेक बार साधारण शरीर में जनम लिया। अनेक बार गर्भ व जन्म की वेदनाएँ भोगी। मनुष्य गति पाकर भी दुःख भोगे और फिर देवगति में मरण को समीप जानकर, देखकर भयातुर दयनीय दशा हो गई और दुःख से बिलबिलाने लगा।
द्यानतराय कहते हैं कि मैंने अब श्री जिनेन्द्र के वचन सुने, उन पर श्रद्धान किया, उनकी ओर ध्यान केन्द्रित किया, तब बहुत से भवों में उपार्जित पापसमूह को मैंने नष्ट कर दिया, दूर किया। भगवान आदिनाथ, अरहन्त आदि देव व गुरु के चरण-कमल में अपना चित्त लगाया। साधारण शरीर - जिस शरीर में अनन्त जीवों का जन्म-श्वासोच्छवास-मरण एकसाथ हो वह साधारण शरीर कहलाता है।
द्यानत भजन सौरभ
१३७