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________________ ( ११२ ) तुम ज्ञानविभव फूली बसन्त, यह मन मधुकर सुखसों रमन्त ॥ टेक ॥ दिन बड़े भये बैराग भाव, मिथ्यातम रजनीको घटाव ॥ तुम. ॥ १ ॥ बहु फूली फैली सुरुचि बेलि, ज्ञाताजन समता संग केलि ॥ तुम. ॥ २ ॥ 'द्यानत' यानी पिक मधुररूप, सुरनरपशुआनंदघनसुरूप ॥ तुम. ॥ ३ ॥ - हे प्रभु! आपके ज्ञान के वैभव के कारण चारों ओर बसन्त सा सुखदमनोहारी वातावरण हो रहा है अर्थात् ज्ञान की उज्ज्वलता में चारों ओर सुखआनन्द बिखर रहा है, जिसमें मेरा यह मन सुखपूर्वक रमण करता है। वैराग्यरूपी दिन उदित हो रहा है जिससे मिथ्यात्व की रात्रि घटती जा रही है, बीत रही है, समाप्त हो रही है । आत्मरुचि की सरस बेल खूब फल-फूल रही है और ज्ञानीजनों के साथ समतारूप क्रीड़ा कर रही है। द्यानतराय कहते हैं कि कोयल के समान मधुर व कर्णप्रिय वाणी अर्थात् दिव्यध्वनि में देव, मनुष्य व तिर्यच सभी घने आनन्द में सराबोर हो रहे हैं। द्यानत भजन सौरभ १२५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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