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________________ (११०) राग गौरी तुमको कैसे सुख है मीत!॥ टेक॥ जिन विषयनि सँग बहु दुख पायो, तिनहीसों अति प्रीति। तुमको.।। उद्यमवान बाग चलनेको, तीरथसों भयभीत। धरम कथा कथनेको मूरख, चतुर मृषा-रस-रीत ॥ तुमको. ।। १ ।। नाट विलोकनमें बहु समझौ, रंच न दरस-प्रतीत्त। परमागम सुन ऊंघन लागौ, जागौ विकथा गीत ॥ तुमको.॥२॥ खान पान सुनके मन हरषै, संजम सुन है ईत। 'द्यानत' तापर चाहत होगे, शिवपद सुखित निचीत। तुमको. ॥३॥ हे प्रिय! तुमको सुख कैसे हो सकता है। मिल सकता है? जिन इन्द्रिय-विषयों के कारण तुमको अत्यन्त दु:ख मिले हैं, उन्हीं के प्रति तुम्हारी प्रीति है, आकर्षण है ! बाग-बगीचों में सैर करने के लिए तो तुम परिश्रम करने को भी तैयार हो, परन्तु तीर्थयात्रा से तुम्हें भय लगने लगता है ! धर्मकथा कहने में तो तुम मूर्ख। अज्ञानी बन जाते हो पर झूठे न मिथ्या कथा-कहानी-किस्से कहने में बहुत चतुर हो, उनमें रस लेते हो, रुचि प्रगट करते हो! नाटक (सिनेमा) आदि देखने में तो रुचि लेते हो, उनको बहुत अच्छी तरह समझते हो, पर भगवान की मुद्रा के दर्शन के प्रति कोई लगन नहीं रखते ! धर्म की, आगम की बात सुनकर ऊँघने लगते हो और विकथा सुनने के लिए पूर्ण जाग्रत हो जाते हो! खाने-पीने आदि की बातों में, भोजन-कथा आदि से मन हर्षित होता है और संयम की बात सुनकर कष्ट होता है ! द्यानतराय कहते हैं कि ऐसा करनेवाले इस पर भी इस बात की चाहना करते हैं कि उन्हें मोक्ष-सुख की प्राप्ति हो जाए और वे निश्चिन्त हो जाएँ! द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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