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________________ (१०६) राग विहागरो जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतमज्ञानी ॥ टेक॥ रागदोष पुद्गलकी संगति, निहचै शुद्धनिशानी ॥ जानत.॥ जाय नरक पशु नर सुर गतिमें, ये परजाय विरानी। सिद्ध-स्वरूप सदा अविनाशी, जानत विरला प्रानी।। जानत. ॥ १॥ कियो न काहू हरै न कोई, गुरु शिख कौन कहानी। जनम-मरन-मल-रहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी ॥ जानत. ॥ २ ॥ सार पदारथ है तिहूँ जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी। 'द्यानत' सो घटमाहिं विराजै, लख हजै शिवथानी॥ जानत. ।। ३ ।। हे ज्ञानी-आत्मा, हे नर! तू यह क्यों नहीं जानता है कि राग-द्वेष दोनों ही पुद्गलजनित हैं। इन दोनों से पुदगल का बोध होता है। तु चैतन्य है और निश्चय से, राग-द्वेष से रहित है, भिन्न है, शुद्धरूप में आत्मस्वरूप है। तू नरक, पशु, मनुष्य और देवगति में भ्रमण करता है, परन्तु ये पर्यायें तेरी नहीं हैं, ये तो पुद्गल की हैं । तू सिद्ध-स्वरूपी है, अविनाशी है। यह तथ्य कोई एक बिरला ही जानता है। द्रव्यदृष्टि से कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता। कोई किसी परवस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता। ये गुरु हैं, ज्ञानी हैं; और ये शिष्य हैं, इसने इसको ज्ञान दिया ऐसा कहने का क्या महत्व है? जैसे कीचड़हित जल निर्मल है, वैसे ही सब उपाधि से मुक्त, जन्म-मरण से रहित यह आत्मा सर्वमलरहित है, शुद्ध है। वह सर्वमलरहित आत्मा ही, क्रोध और मानरहित आत्मा ही तीन लोक में सारवान है, क्रोध और मान सारवान नहीं है। ऐसा क्रोध व मान से रहित निर्मल आत्मा जो अपने अन्तर में आसीन है, व्याप्त है उसी का ध्यान व चिन्तन कर जिससे शिव अर्थात् शान्ति का स्थान मोक्ष प्राप्त हो अर्थात् सिद्धस्वरूप की प्राप्ति हो जावे। मानत भजन सौरभ ११९
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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