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प्राणी! तुम तो आप सुजान हो, अब जी सुजान हो ॥ टेक ॥ अशुचि अचेत विनश्वर रूपी, पुद्गल तुमतैं आन हो । चेतन पावन अखय अरूपी, आतमको पहिचान हो । प्राणी. ॥ १ ॥
नाव धरेकी लाज निबाहो, इतनी विनती मान हो । भव भव दुःख को जल दे 'द्यानत', मित्र ! लहो शिवथान हो । प्राणी ॥ २ ॥
हे चेतन ! तुम तो स्वयं समझदार हो, विवेकवान हो ।
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यह देह अशुचि हैं, अचित अर्थात् जड़ हैं. नष्ट होनेवाली हैं, पुद्गल है यह तुम से / आत्मा से भिन्न हैं, अलग है । तुम (आत्मा) तो चैतन्य हो, अक्षय हो, अरूपी हो, ऐसे आत्मा की पहचान करो 1
द्यानतराय कहते हैं कि हे चेतन ! आप अपने नाम का, उसके अनुरूप कीर्ति का, अपनी मान-मर्यादा का निर्वाह करो और इतनी विनती स्वीकार करो - भवभव के दुःखों को जलांजलि दो, त्याग दो तो ए मित्र, तुम मोक्ष को प्राप्त करो।
द्यानत भजन सौरभ
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