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________________ (९८) घटमें परमातम ध्याइये हो, परम धरम धनहेत। ममता बुद्धि निवारिये हो, टारिये भरम निकेत ॥ घटमें.॥ प्रथमहिं अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय देह। काल अनन्त सहे दुखजानैं, ताको तजो अब नेह ॥ घटमें.॥१॥ ज्ञानावरनादिक जमरूपी, निजतै भिन्न निहार। रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ॥ घटमें.॥२॥ तहाँ शुद्ध आतम निरविकलप, है करि तिसको ध्यान । अलप कालमें घाति नसत हैं, उपजत केवलज्ञान !। घटमें. ॥ ३।। चार अधाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त। सम्यकदरसनकी यह महिमा, 'द्यानत' लह भव अन्त। घटमें.॥४॥ हे साधक! परम धन - मोक्ष की प्राप्ति हेतु अपने घर में हृदय में अपनी आत्मा के परम स्वरूप का ध्यान कीजिए। राग और ममत्व बुद्धि को छोड़िए, वह ही सब प्रकार के भ्रम का कारण है, भ्रम का घर है। सर्वप्रथम अपनी इस सात धातुमय देह की ओर देखो। इसमें सर्वत्र अशुचि भरी है, उसी से यह निर्मित है। अनन्तकाल से इस देह के माध्यम से दुःख सहे हैं, अब इससे अपना ममत्व तोड़ो। ज्ञानावरणादिक कर्म मृत्यु की भाँति जकड़े हुए हैं । उनसे भिन्न अपनी आत्मा के निर्मल स्वरूप को निहार, देख ! अपने अच्छे - शुद्ध विचारों के मुकाबले रागादिक की परिणति स्थिति अत्यन्त भिन्ना है। तू तेरे शुद्ध आत्मा का, जिसके किसी भी प्रकार का विकल्प या विभाव नहीं है, उस रूप में ध्यान कर । उससे अल्पकाल में तैरे घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान प्राप्ति की संभावना हो जायेगी। द्यानत भजन सौरभ १०७
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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