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________________ (१६) कर मन! वीतरागको ध्यान ।। टेक ।। जिन जिनराय जिनिंद जगतपति, जगतारन जगजान॥ कर.॥ परमातम परमेस परमगुरु, परमानंद प्रधान। अलख अनादि अनन्न अनुपम, अजर अमर अमलान॥ कर.॥१॥ निरंकार अधिकार निरंजन, नित निरमल निरमान। जती व्रती मुन ऋषी सुखी प्रभु, नाथ धनी गुन ज्ञान ।। कर. ।। २॥ सिव सरवज्ञ सिरोमनि साहब, सांई सन्त सुजान। 'द्यानत' यह गुन नाममालिका, पहिर हिये सुखदान ॥ कर. ॥३॥ हे मेरे मन ! तू वीतराग प्रभु का ध्यान कर। अपने आप पर विजय पानेवाले जो जिन हैं, उनमें जो शिरोमणि हैं, जिनेन्द्र हैं, जगत के स्वामी हैं, उनको सारा जगत जानता है कि ये ही जग से तारनेवाले हैं। वे वीतराग ही परम आत्मा हैं, परम ईश्वर हैं, परम गुरु हैं, परमानन्द के देनेवालों में प्रधान हैं, मुख्य हैं । वे अदृष्ट हैं, अनादि हैं, अनन्त हैं, उपमारहित. अनुपम हैं, कभी भी मलिन न होनेवाले प्रसन्नमूर्ति हैं। उनका कोई पुद्गल आकार नहीं है, वे निराकार हैं, विकाररहित हैं, दोषरहित निरंजन हैं, मानरहित हैं। वे यति, व्रती, मुनि, ऋषि व आनंदितजनों के प्रभु हैं, ज्ञानगुण के धनी हैं, स्वामी हैं। वे वीतराग शिव (मोक्ष) हैं, सर्वज्ञ हैं, श्रेष्ठ स्वामी हैं, सन्तों द्वारा जाने गए हैं। द्यानतराय कहते हैं कि जो उनके नाम की, गुणों को यह माला हृदय में धारण करता है, उसे यह सुन प्रदान करती है। द्यानत भजन सौरभ १०५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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