SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (८५) आतमरूप सुहावना, कोई जानै रे भाई । जाके जानत पाइये, त्रिभुवनठकुराई ॥ टेक ॥ मन इन्द्री न्यारे करौ, मन और विचारौ । विषय विकार सबै पिटें, यह सुख धारौ ॥ आतम. ।। १ ।। वाहिरतैं मन रोककें, जब अन्तर आया। चित्त कमल सुलट्यो तहाँ चिनमूरति पाया ।। आतम. ॥ २ ॥ 7 पूरक कुंभक रेचतैं, पहिलै मन साधा। ज्ञान पवन मन एकता भई सिद्ध समाधा ॥ आतम. ॥ ३ ॥ जिनि इहि विध मन वश किया, तिन आतम देखा । 'द्यानत' मौनी व्है रहे पाई सुखरेखा ॥ आतम. ॥ ४ ॥ J ओ भव्य ! जरा यह जान करके तो देख कि आत्म-स्वरूप कितना सुहावना है अर्थात् अपने आत्म-स्वरूप को जान और उसमें रमण कर । उस स्वरूप को जानने मात्र से तीन लोक का स्वामित्व पा लेता है। मन को इन्द्रिय-विषयों से अलग करो। फिर मन में ही विचार करो तो सब विषय-विकार के दूर होने से सहज ही सुख का आगमन होता है, प्रादुर्भाव होता है । बाहर की वस्तुओं से अपना ध्यान हटाकर जब तू आत्म-स्वरूप का विचार करने लगेगा, उसी समय हृदय कमल पर आसीन अपने चैतन्य रूप का दर्शन हो जायेगा । श्वास को भरने की पूरक क्रिया, उसे रोके रखने की कुंभक क्रिया और श्वास को बाहर निकालने की रेचक क्रिया द्वारा पहले अपने मन को साधो अर्थात् बाहर के अन्य सभी आकर्षणों से अपने को अलग करो। जब ज्ञान, श्वास और मन एक द्यानत भजन सौरभ ९१
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy