________________
क्यों सो रहा है (९०) ? है वेतन ! तुझे क्या कहें ! अपने पूर्व कर्म के संयोग से यह अवसर प्राप्त करके भी तृ विषयों में उलझ रहा है ( २३८) ! हे जोव ! सारा जग स्वार्थ में डूबा हुआ है और तृ स्वार्थ स्त्र - अर्थ को भूल रहा है ( २३६) । अरे ! तू चाहता तो सुख हैं पर सुख देनेवाले धर्म को ग्रहण नहीं करता, हितकारी बात तेरे हृदय में नहीं बैठती ( २३२) । हे चेतन ! देख जीवघात करने से नरक जाना होगा जहाँ अत्यन्त दु:पन्न सहने होंगे (२३३)। देख ! त् अपने कार्यों से संसार महावन में भटकता रहता है, अनेक जन्म धारण करता रहता है (१२९) (१२२)। तुने स्वयं ने पाप कमाये हैं, अब उनके दुःख भी तुझे ही सहन करने पड़ेंगे (२५४),
स्वहित की भावना - गुरु के संबोधन से, जिनवाणी के पढ़ने-सुनने से, मनुष्य प्राणी में स्वहित की भावना जागृत होती है तब उसके विचार कैसे होते हैं, क्या होते हैं - इसका चित्रण करत हुए कवि कहते हैं - हे मेरे मन ! ऐसा स्थिति कब होगी कि जब मैं सभी जीवों को अपने समान समझेंगा ( २६२) । हे प्रभु ! ऐसा कब होगा कि मुझे इस संसार से वैराग्य होगा (२६२) ! ऐसा अवसर कब होगा कि मैं मुनिव्रत धारणकर आत्मकल्याण कर सकूँगा (२७६) ! ऐसा अवसर कब आयेगा जब मैं आत्मा का ध्यान करूँगा (१३६) !
आत्म-सम्बोधन - स्वहित की भावना से ओत प्रोत मनुष्य स्वयं को सम्बोधता हैं उस स्थिति का चित्रण करते हुए कवि कहते हैं - हे मन ! वीतराग का ध्यान कर (९८) ! हे मन ! तु. अरिहंत का स्मरण कर (२६६) । तू अपने घट (शरीर) में विराजित आत्मा का ध्यान कर (९८) हे मन ! आत्मदेव को भज. इससे ही शिवपद मिलेगा { १२०)। हे मेरे मन ! तू मेरी बात मान, सब बातें छोड़कर तू केवल प्रभु का भजन कर (१६८)। हे बाबरे मन ! तु इधर - उधर कहाँ भटक रही है ? तू 'जिन' का नाम स्मरण कर (१७५) । हे मन ! श्री जिनराज के गीत गा ले इसमे मंगल होता है (२१२), इससे करोड़ों पापों का नाश होता है (२१३) । हे मन् ! तू समझ ले कि किसकी भक्ति करने से तेरा हित होगा (१७० ) ! तु विचार कर कि यह आत्मा ब्रह्म कैसा है (१२७) । हे प्राणी । तू विचार कर कि तू कौन है ! तेरा स्वरूप क्या है (९२) ! अरे ! अपना हित कर (९२) (९३) । हे मन ! अपना चिन्तवन कर (९५ ) । अरे यह तथ्य समझ कि जिनपद चाहने से नहीं मिलता, जिनपद तो आचरण से मिलता है।