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________________ यह देह तेरे साथ नहीं जानेवालो फिर भी त क्यों इसका पाषण करता रहता है (२३३)? पर जीव नहीं मानता, वह फिर भी इस देह से मोह करता है और उससे आशा रखता है कि यह मेरे साथ रहेगी - हे काया ! अपन जन्म सं अब तक रात-दिन एकसाथ रहे हैं, इसलिए अब मृत्यु के बाद भी तू मेरे साथ संग चल. तू अब मेरा साथ क्यों छोड़ रही है (६३) तब कवि देह के न्याय से समझाती है है .- यह देह जीव से कहती हैं कि हे जीव ! तूने मेरा स्वरूप नहीं जाना, तू और में अनेक बार मिले-बिछड़े पर फिर भी तुने मेरा स्वभाव नहीं जाना.! तुम और मैं बिल्कुल भिन्न हैं (२३७) । संसार की नश्वरता - संसार की नश्वरता समझाते हुए कवि कहते हैं इस जग में कुछ भी स्थिर नहीं है ( १४६) । यह संसार स्वप्न के समान क्षणभंगुर है, यहाँ जो अभी दिख रहा है उसका विनाश होने में कुछ देर नहीं लगती (२४०) । यह संसार असार है जैसे कि ओस का मोती (७६) । यहाँ जो एकबार बिछुड़ जाता है उसका मिलना फिर असंभव है (२७०)। यहाँ प्रत्येक स्थिति परिवर्तनशील है इसलिए यहाँ सुख है ही नहीं। यहाँ क्षण में कोई मरता है और क्षण में कोई जीता है (२६९) । इस संसार में कुछ भी अपना नहीं है फिर भी तेरी-मैरी करते ही सारा जीवन बीतता है (२६१ ) । तू इस तथ्य को समझ कि इस संसार में न हम किसी के हैं और न कोई हमारा है, जगत में जो तेरे मेरे का व्यवहार चलता है वह सब झूठा है { २७१) । इसलिए तु अपने प्रिय लोगों के मरने पर शोक मत कर, यहाँ लोगों का मिलना नदी नाव के संयोग के समान कुछ देर के लिए ही होता है (२७०) । इसलिए यह संसार हेय है ( २६०) । कुटुम्ब/मित्र की निस्सारता - हे जीन ! यह सारा संसार ठगरूप है. यहाँ तेरा अपना कोई नहीं है ( २३५) । जिनको तू अपना कहता है वे कोई तेरे नहीं हैं (१०३)। यहाँ भाई भी शत्रु बन जाते हैं, माता-पिता, पत्नी पुत्र सब स्वार्थ के साथी हैं (२४०)। गुरु द्वारा भर्त्सना बार-बार समझाने पर भी प्राणी नहीं समझता तो गम उसकी भर्त्सना भी करने लगते हैं। कवि कहते हैं कि तब गुरु कहते हैं कि है नर ! तू जानता/समझता क्यों नहीं (१०६)? है चेतन ! यह कौनसा चतुराई है कि तुम आत्मा के हित को छोड़कर विषय- भोगों में ही लग रहे हो (१४९) ! अरे प्रमादी जीव ! तूने अपनी आत्मा को नहीं पहचाना ( १४२), इसलिए त संसार-सागर में जन्म- मरण कर रहा है (१२८) । हे मित्र ! तू निश्चिन होकर (xi
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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