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________________ ( ८० ) आतम जाना, मैं जाना ज्ञानसरूप ॥ टेक ॥ पुद्गल धर्म अधर्म गगन जम, सब जड़ मैं चिद्रूप ॥ आतम ॥ १ ॥ दरब भाव नोकर्म नियारे, न्यारो आप अनूप ॥ आतम. ॥ २ ॥ 'द्यानत' पर - परनति कब बिनसै, तब सुख विलसै भूप ॥ आतम ॥ ३ ॥ मैं ज्ञान स्वरूपी हूँ मैंने अपना यह स्वरूप जान लिया है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सब जड़ पदार्थ हैं और एक मैं जीत्र चैतन्य स्वरूप हूँ । द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नोकर्म ये सब मुझसे न्यारे हैं। मैं इनसे भिन्न, अलग ही अनुपम स्वरूप हूँ । द्यानतराय कहते हैं कि तू पर की परिणति अर्थात् पुद्गल के साथ उसकी पर्याय धारणकर विनाश का नाटक करता रहता है। उस परणति का नाश करने में तुझे अनन्त सुख की प्राप्ति होगी अर्थात् तब तू तेरे अनन्तसुख का यथार्थ स्वामी होगा । जम काल । द्यानत भजन सौरभ ८५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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