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________________ (७३) अनहद शबद सदा सुन रे ।। टेक ॥ आपछि नु, और न ज्ञान, कार सिन्हा सुनिये धुन रे॥ अनहद.॥१॥ भ्रमर गुंज सम होत निरन्तर, ता अन्तरगत चित चुन रे।। अनहद.॥२॥ 'द्यानत' तब लौ जीवनमुक्ता, लागत नाहिं करम-घुन रे।। अनहद.॥३॥ हे भव्य ! तू इस लोक में उस अक्षय - कभी न क्षय होनेवाले शब्द के नाद को सुन। उसका नाद, तुझे स्वयं को ही प्रतिपल, बिना कर्ण इन्द्रिय के सहयोग के सुनाई में आ सकता है और तू ही उसे जान सकता है। वह भँवरे की भन भन धुन के समान बजता रहता है जो जब तू शान्तचित्त होकर, निश्चिन्त होकर अपने भीतर चित्त में देखता है तभी सुनाई पड़ सकता है। द्यानतराय कहते हैं कि जब ऐसी जीवनमुक्त स्थिति से सात्म्य होता है तब कर्मों का धुन नहीं लगता है। भवद शाय (बा) योग का विधान अन्ती आदि नत यति। अनहद शब्द (नाद) = योगियों को सुनाई देनेवालो आन्तरिक ध्वनि, अनाहत ध्वनि। ७६ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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