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________________ (७२) अब हम आतमको पहिचान्यौ । टेक॥ जबहीसेती मोह सुभट बल, खिनक एकमें भान्यौ। अब.॥ राग-विरोध-विभाव भजे झार, पता भार.. लागौ। ... .. . दरसन ज्ञान चरनमें चेतन, भेदरहित परवान्यौ ॥ अब. ॥ १॥ । जिहि देखें हम अवर न देख्यो, देख्यो सो सरधान्यौ। ताजौ कहो कहैं कैसैं करि, जा जानै जिन जान्यौ ॥ अब.॥२॥ पूरब भाव सुपनवत देखे, अपनो अनुभव तान्यो। 'द्यानत' ता अनुभव स्वादत ही, जनम सफल करि मान्यौ॥अब.॥३॥ अहो ! अब हमने आत्मा को पहिचान लिया है जब से हमने मोह नाम के प्रबल शत्रु को एक क्षण में जान लिया है। राग-द्वेषरूपी विभावों को क्षयकर मोहरूपी भाव का हमने नाश कर दिया है और अब अपने चित्त में सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्र द्वारा भेदरहित एकमात्र अपने चैतन्य स्वरूप को जान लिया है। इसे देखने-जानने के बाद अब इसके अतिरिक्त हमने किसी को भी नहीं देखा और जो अपने इस चैतन्य स्वरूप को देखा-जाना-पहचाना, उसका ही श्रद्धान। विश्वास किया है। वह अवर्णनीय है, उसका कोई वर्णन नहीं किया जा सकता । जो उसे जानता है बस वहीं जानता है। अब तक रहे भाव सब स्वप्न के समान थे। अब मात्र अपनी आत्मा का अनुभव है। द्यानतराय कहते हैं कि उस अनुभव के स्वाद में, रस ही में शान्ति है, उसी में अपना जन्म सफल माना गया है। धानस भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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