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अब मैं जान्यो आतमराम ॥ टेक ॥
काम न आवै गोधन धाम ॥ अब. ॥
जिहँ जान्या बिन दुख्ख बहु सह्यो, सो गुरुसंगति सहजै किये अज्ञानमाहिं जे कर्म, सब नाशे प्रगट्यो निज
लह्यो ।
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धर्म |
अब . ॥
१ ॥
अब ॥ २ ॥
जास न रूप गंध रस फास, देख्यो करि अनुभौ अभ्यास || अब ॥ ३ ॥ जो परमातम सो ममरूप, जो मम सो परमातम भूप ॥ अब. ॥ ४ ॥ सर्व जीव हैं मोहि समान, मेरे बैर नहीं तिन मान । अब ॥ ५ ॥ जाको ढूंढै तीनों लोक, सो मम घटमें है गुण थोक || अब ॥ ६ ॥ जो करना था सो कर लिया, 'द्यानत' निज गह पर तज दिया ॥ अब. ॥ ७ ॥
अब मैंने अपने आत्मस्वरूप को जान लिया है। इसे जानने के पश्चात् पशुधन, घर आदि कोई काम नहीं आते।
जिसे जाने बिना मैं अब तक बहुत दुःख सहता रहा, वह ज्ञान गुरु की संगति से मुझे सहज ही मिल गया।
अज्ञानवश मैंने जो कर्म किए, वे सब अब निज स्वभाव प्रकट होने से नष्ट हो गये हैं । अर्थात् शुद्ध भावों के होने पर विभाव स्वतः ही मिट जाते हैं । अभ्यास और अनुभव करके मैंने यह जान लिया है कि इसके अर्थात् आत्मा के रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है, ये तो पुद्गल के गुण हैं I
जो परमात्मा का स्वरूप है, वह ही मेरा स्वरूप है। इसलिए मैं ही अपना परमात्मा हूँ - स्वामी हूँ ।
सब जीव मेरे समान हैं, मेरा किसी से तनिक भी द्वेष नहीं है। जिसे तीन लोक में ढूँढा जाता है, वह गुण का पुंज मेरे अपने ही अन्दर में विराजमान है। जो करना था अब कर लिया। द्यानतराय कहते हैं कि निज को ग्रहण कर लिया व पर का त्याग कर दिया है।
धानत भजन सौरभ