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________________ (६५) री चल बंदिये चल बंदिये, री, महावीर जिनराय॥ पाप निकन्दिये महावीर जिनराय, वारी वारी महिमा कहिय न जाय ।। टेक ॥ विपुलाचल परवतपर आया. समवसरन बहु भाय॥री चल.॥१॥ गौतमरिखसे गनधर जाके, सेवत सुरनर पाय ।। री चल.॥२॥ बिल्ली मूसे गाय सिंहसों, प्रीति करै मन लाय ।। री चल.॥३॥ भूपतिसहित चेलना रानी, अंग अंग हुलसाय ।। री चल. ॥ ४॥ 'द्यानत' प्रभुको दरसन देखें, सुरग मुकति सुखदाय ॥री चल.॥५॥ अरे ! चलकर श्री महावीर जिनेन्द्र का वंदन करो। जिनकी वंदना. से पापों का नाश होता है, उसकी महिमा अकथनीय है । मैं उस पर वारि जाता हूँ। विपुलाचल पर्वत पर भगवान का समवसरण आया है, जो मन को बहुत भा रहा है, अच्छा लग रहा है। गौतम-से विद्वान ऋषि जिनके गणधर हैं । देव व मनुष्य सभी जिनके चरणों की सेवा करते हैं। जाति विरोध तजकर बिल्ली और चूहा, गाय और सिंह सभी में आपस में मैत्री स्थापित हो गई है। राती चेलनासहित राजा श्रेणिक के रोम-रोम अति प्रसन्नता से पुलकित हो रहे हैं। द्यानतराय कहते हैं कि ऐसे प्रभु के दर्शन से स्वर्ग व मुक्ति दोनों की प्राप्ति होती है। दोनों सुलभ होते हैं। घानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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