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________________ २०२६ प. एएहिं वावहारिएहिं खेत्तपलिओवम-सागरोवमेहिं किं पयोयणं? उ. एएहिं वावहारिएहिं खेत्तपलिओवम-सागरोवमेहिं नत्थि किंचिप्पओयणं केवलं तु पण्णवणा पण्णविज्जइ। से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे। -अणु. सु. ३९३-३९५ सोदाहरणं सुहुम खेत्तपलिओवमस्स सरूव परूवणंसूत्र २० (घ) प. से किं तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे? उ. सुहुमे खेत्तपलिओवमे से जहाणामए पल्लेसिया-जोयणं आयाम-विक्वंभेणं, जोयणं उड्ढं उच्चतेणं, तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, द्रव्यानुयोग-(३) प्र. इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? उ. इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता मात्र इनके स्वरूप की प्ररूपणा ही की गई है। यह व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम (एवं सागरोपम) का स्वरूप है। उदाहरण सहित सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम के स्वरूप का प्ररूपण से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं सम्मढे सन्निचित्ते भरिए वालग्गकोडीणं तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गा दिट्ठी ओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा। ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा, नो वाओ हरेज्जा, णो कुच्छेज्जा, णो पलिविद्धंसेज्जा, णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गेहि अप्फण्णा वा अणप्फुण्णा वा, तओ णं समए-समए एगमेग आगासपएस अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्ठिए भवइ। से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे। तत्थ णं चोयए पण्णवगं एवं वयासीप. अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहिं अणप्फुण्णा? उ. हंता, अत्थि। प. जहा को दिटुंतो? उ. से जहाणामए कोट्ठए सिया कोहंडाणं भरिए, प्र. सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है? उ. सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है जैसे धान्य के पल्य के समान एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊँचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला एक पल्य हो। फिर उस पल्य को एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् सात दिन के उगे हुए बालाग्र नीचे से ऊपर तक ठसाठस भरे जाएँ और उन बालाग्रों के असंख्यात ऐसे खण्ड किए जाएँ, जो दृष्टि के विषयभूत पदार्थ की अपेक्षा असंख्यातवें भाग-प्रमाण हों एवं सूक्ष्मपनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यातगणे हों। उन बालाग्रखण्डों को न अग्नि जला सके और न वायु उड़ा सके, वे न सड़-गल सकें और न जल से भीग सकें, उनमें न दुर्गन्ध भी उत्पन्न हो सके। उस पल्य के बालानों से जो आकाशप्रदेश स्पष्ट हुए हों और स्पष्ट न हुए हों। उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए अर्थात् गणना की जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज, निर्लेप एवं सर्वात्मना विशुद्ध हो जाए, उस काल को सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहते हैं। इस प्रकार प्ररूपणा करने पर जिज्ञासु ने पूछाप्र. क्या उस पल्य के ऐसे भी आकाशप्रदेश हैं जो वालाग्रखण्डों से अस्पष्ट हों? उ. हाँ, हैं। प्र. इस विषय में कोई दृष्टान्त है? उ. हाँ, है। जैसे कोई एक कोष्ठ (कोठार) कूष्मांड (कोला) के फलों से भरा हुआ हो, फिर उसमें बिजौरा फल डाले जाएँ तो वे भी उसमें समा जाते हैं। फिर उसमें विल्बफल डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। फिर उसमें आँवला डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। फिर उसमें बेर डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। फिर उसमें चने डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। फिर उसमें मूंग के दाने डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। फिर उसमें सरसों के दाने डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। इसके बाद उसमें गंगा महानदी की बालू डाली जाए तो वह भी समा जाती है। इसी प्रकार इस दृष्टान्त से उस पल्य में ऐसे भी आकाशप्रदेश होते हैं जो उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट रह जाते हैं। तत्थ णं माउलुंगा पक्वित्ता ते वि माया, तत्थ णं बिल्ला पक्वित्ता ते वि माया, तत्थ णं आमलया पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं बयरा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थं णं चणणा पक्वित्ता ते वि माया, तत्थ णं मुग्गा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं सरिसवा पक्वित्ता ते वि माया, तत्थ णं गंगावालुया पक्खित्ता सा वि माया, एवामेव एएणं दिट्ठतेणं अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणप्फुण्णा।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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