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________________ परिशिष्ट ३ गणितानुयोग अण्णे पति तं जहा- तीसे णं समाए पढमे तिभाए इमे पण्णरस कुलगरा समुपस्तिति तं जहा १. सुमई २. पहिस्सुई ३ सीमंकरे, ४ सीमंधरे, ५. खेमंकरे, ६. खेमंधरे, ७. विमलवाहणे, ८. चक्खुमं, ९. जस १०. अभिचंद, ११. चंदामे, १२. सेगई, १३. मरूदेवे, १४. णाभी, १५. उसमे । सेसं तं चेव, दंडणीईओ पडिलोमाओ णेअव्वाओ । 7 तीसे णं समाए पढमे तिभाए रायधम्मे, गणथम्मे, पाखंडधम्मे अग्णिधम्मे धम्मेवरणे अ वोच्छिन्जिस्स तीसे णं समाए मज्झिमपच्छिमेसु तिभागेषु पढममज्झिमे वत्तव्या ओसप्पिणीए सा भाणिअव्वा । ५६. सुसमा तहेव सुसमसमा वि तहेव सहा मणुस्सा अणुसज्जित जाव सणिचारी ॥ पृ. ७०७ खेत्तपलि ओवमस्स भेया सूत्र २० (ख) -जंबू. वक्ख. २, सु. ४७-५० प से किं तं खेत्तपलिओवमे ? उ. खेत्तपलि ओवमे - दुविहे पण्णत्ते, तं जहा २. वावहारिए य १. सुहुमे य, तत्थ णं जे से सहमे से ठप्पे । - अणु. सु. ३९२ सोदाहरणं बावहारिय खेल पलि ओवमस्स सरूय परूवणंसूत्र २० (ग) प से किं तं वावहारिए खेतपतिओवमे ? उ. वावहारिए खेत्तपलिओवमे से जहानामए पल्ले सिया जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयण उड्ढ उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, सेणं पल्ले एगाहिय बेहिय तेहिय जाव भरिए वालग्गकोडीणं । तेष्णं वालग्गा जो अग्गी हहेज्जा णो वाओ हरेज्जा जाब गो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । जेणं तस्स पल्लस्स आगासपदेसा तेहिं वालग्गेहिं, अप्पुण्णा तओ णं समए- समए एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइएण काले से पल्ले खीणे जाव तिट्ठिए भवइ । सेतं चावहारिए खेतपलिओयमे । एएसि पल्लागं, कोडाकोडी हवेज दसगुणिया तं वावहारियस खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं । २०२५ किन्तु इसमें कुलकर और भगवान ऋषभ का वर्णन नहीं करें। इस संदर्भ में अन्य आचार्यों का कथन इस प्रकार हैउस काल के प्रथम त्रिभाग में पन्द्रह कुलकर होंगे, 9. सुमति, २ प्रतिश्रुति, ३ सीमंकर, ४ सीमन्धर, ५. क्षेमंकर, ६. क्षेमंधर, ७. विमलवाहन, ८. चक्षुष्मान्, यथा ९. यशस्वान्, १०. अभिचन्द्र, ११. चन्द्राभ, १२. प्रसेनजित, १३. मरूदेव, १४. नाभि, १५. ऋषभ । शेष कथन उसी प्रकार है । दण्डनीतियाँ विपरीत क्रम से समझनी चाहिए। उस काल के प्रथम त्रिभाग में राज धर्म, गण धर्म, पाखण्ड धर्म, अग्नि धर्म तथा धर्माचरण विच्छिन्न हो जायेगा। उस समय के मध्यम तथा अन्तिम त्रिभाग का कथन अवसर्पिणी के प्रथम और मध्यम त्रिभाग के समान जानना चाहिए। ५- ६. सुषमा और सुषम- सुषमा नामक पाँचवें छट्टे आरों का वर्णन भी अवसर्पिणी काल के सुषम और सुषम-सुषमा आरे के समान जानना चाहिए। शनिश्चर पर्यन्त छह प्रकार के मनुष्यो का वर्णन भी इसी प्रकार है। क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप प्र. क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है ? उ. क्षेत्रपल्योपम दो प्रकार का कहा गया है, यथा १. सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम, २. व्यावहारिक क्षेत्रपल्पोपम उनमें से सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम स्थापनीय है। उदाहरण सहित व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम के स्वरूप का प्ररूपण प्र. व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम का क्या स्वरूप है ? उ. व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है जैसे कोई एक योजन आयाम-विष्कम्भ और एक योजन ऊँचा तथा कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला (धान्य मापने के पल्य के समान) पल्य हो । उस पल्य को दो, तीन यावत् सात दिन के उगे बालाग्रों से इस प्रकार भरा जाए कि उन बालाग्रों को अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके यावत् उनमें दुर्गन्ध भी पैदा न हो। तत्पश्चात् उस पल्य के जो आकाशप्रदेश बालाग्रों से व्याप्त हैं, उन प्रदेशों में से समय-समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए- निकाला जाए तो जितने काल में वह पल्य खाली हो जाए यावत् विशुद्ध हो जाए। उतने काल को व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम कहते हैं। इस पत्योपन की दस गुणित कोटाकोटि का एक व्यावहारिक क्षेत्रसागरोपम का परिमाण होता है (अर्थात् दस कोटाकोटि व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है।)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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