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________________ उपयोग-पासणया आगमों में ज्ञान एवं दर्शन को उपयोग कहा गया है। ज्ञान को साकार उपयोग एवं दर्शन को निराकार उपयोग कहा जाता है। ये दोनों उपयोग जीव के लक्षण हैं। साकारोपयोग के पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान के आधार पर आठ भेद किये जाते हैं, यथा(१) आभिनिबोधिकज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यवज्ञान, (५) केवलज्ञान, (६) मत्यज्ञान, (७) श्रुतअज्ञान और (८) विभंगज्ञान। अनाकारोपयोग के चार भेद हैं-(१) चक्षुदर्शन, (२) अचक्षुदर्शन, (३) अवधिदर्शन और (४) केवलदर्शन। ज्ञान-अज्ञान के सम्बन्ध में आगे ज्ञान शीर्षक के अन्तर्गत विचार किया गया है। अतः यहाँ पर दर्शन पर विचार कर लेना आवश्यक है। 'दर्शन' शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होता आया है। दर्शन शब्द दृष्टि एवं फिलॉसफी के अर्थ में तो प्रयुक्त होता ही है, किन्तु जैनदर्शन में उसका प्रयोग ज्ञान के पूर्व होने वाले सामान्य ग्रहण अथवा स्वसंवेदन के अर्थ में भी होता रहा है। दर्शनरूप अनाकारोपयोग निर्विकल्पक होता है। इसके चक्षुदर्शन आदि चार प्रकार निरूपित हैं। चक्षु से होने वाला दर्शन चक्षुदर्शन कहा जाता है तथा चक्षु से भिन्न इन्द्रियों एवं मन के द्वारा होने वाला सामान्य ग्रहण अचक्षुदर्शन कहा जाता है। अवधिदर्शन अवधिज्ञान के पूर्व सामान्य ग्राहक होता है किन्तु केवलदर्शन में यह बात नहीं है। प्रारम्भ में केवलज्ञान पहले होता है, उसके पश्चात् फिर केवलदर्शन एवं केवलज्ञान का क्रम प्रारम्भ होता है। उपयोग के रूप में आगम के अनुसार ज्ञान एवं दर्शन युगपद्भावी नहीं हैं। एक अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही इन उपयोगों में परिवर्तन होता रहता है। केवलज्ञानियों में भी एक समय में एक ही उपयोग पाया जाता है। दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं। सिद्धसेनसूरि का मानना है कि केवलज्ञान एवं केवलदर्शनोपयोग युगपद्भावी हैं। केवलज्ञानावरण एवं केवलदर्शनावरण कर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो जाने के कारण इन दोनों उपयोगों का युगपद्भाव मानना चाहिए। सिद्धसेनसूरि का यह तर्क आगम विरुद्ध है। जिनभद्रगणि, वीरसेन आदि अनेक आचार्यों ने केवलज्ञान एवं केवलदर्शन के युगपद्भाव एवं क्रमभाव को लेकर विचार किया है। आगम में कहा गया है कि केवलज्ञानी जिस समय रत्नप्रभा पृथ्वी आदि को आकारों, हेतुओं, उपमाओं, दृष्टान्तों, वर्णों, संस्थानों, प्रमाणों और उपकरणों से जानते हैं उस समय देखते नहीं हैं तथा जिस समय देखते हैं उस समय जानते नहीं हैं। पासणया एवं उपयोग में विशेष अन्तर नहीं है। एक स्थूल अन्तर यह है कि उपयोग में ज्ञान एवं दर्शन के समस्त भेद गृहीत होते हैं, जबकि पासणया में मतिज्ञान, मतिअज्ञान एवं अचक्षुदर्शन का ग्रहण नहीं होता। पासणया के लिए संस्कृत में पश्यता शब्द का प्रयोग हुआ है, जो बौद्धदर्शन में प्रचलित विपश्यना से भिन्न है। पासणया भी उपयोग की भाँति साकार एवं अनाकार में विभक्त है। साकार पासणया में श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान, श्रुतअज्ञान एवं विभंगज्ञान का समावेश होता है जबकि अनाकार पश्यता में चक्षु, अवधि एवं केवलदर्शन की गणना होती है। दृष्टि स्थूलरूप से 'दृष्टि' शब्द का अर्थ नेत्र या नेत्रों से देखना लिया जाता है। किन्तु जैनागमों में 'दृष्टि' शब्द जीवन एवं जगत् के प्रति जीव के दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। दृष्टि का सम्बन्ध आत्मा से है, बाह्य शरीर, इन्द्रियादि से नहीं। कोई भी जीव दृष्टिविहीन नहीं होता, चाहे वह एकेन्द्रिय का पृथ्वीकायिक जीव हो या सिद्ध जीव। सबमें दृष्टि विद्यमान है। दृष्टि तीन प्रकार की कही गई है-(१) सम्यग्दृष्टि, (२) मिथ्यादृष्टि और (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि)। जो जीव संसार में सुख समझकर विषयभोगों में रमते हैं वे मिथ्यादृष्टि होते हैं। जो जीव इनसे ऊपर उठकर मोक्षसुख के अभिलाषी होते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। इनकी विषयभोगों में आसक्ति घट जाती है। सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होना आवश्यक है। वे सात प्रकृतियाँ मोहकर्म की हैंअनन्तानुबन्धी कषाय का चतुष्क, सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय एवं मिश्रमोहनीय। जब मोहकर्म की ये सात प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं तभी दृष्टि सम्यक् बन पाती है। जब सम्यग्दर्शन भी न हो, मिथ्यादृष्टि भी न हो तो उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में जीवादि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा करने को सम्यग्दर्शन कहा गया है। जीवादि सात या नवतत्त्वों पर श्रद्धा होने का तात्पर्य है जीवन एवं जगत् के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण। सम्यग्दर्शन का एक अभिप्राय है सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर श्रद्धा करना। अरिहंत एवं सिद्ध को सुदेव मानना, सुसाधु को गुरु मानना एवं जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित धर्म को धर्म मानना-सम्यक्त्व की एक पहचान है। सम्यक्त्व के पाँच लक्षण माने गये हैं-(१) शम, (२) संवेग, (३) निर्वेद, (४) अनुकम्पा और (५) आस्था। क्रोधादि कषायों का शमन शम है। धर्म के प्रति उत्साह, साधर्मिकों के प्रति अनुराग या परमेष्ठियों के प्रति प्रीति संवेग है। विषयभोगों से वैराग्य निर्वेद है। दुःखी प्राणियों के दुःख से अनुकम्पित होना अनुकम्पा है। जिनदेव, सुसाधु एवं जिनप्रणीत पर श्रद्धा करना एवं तत्त्वार्थों पर श्रद्धा करना आस्था या आस्तिक्य है। जो जिनवचनों पर श्रद्धा रखकर उन्हें जीवन में अपनाता है वह निर्मल एवं संक्लेशरहित होकर संसार-भ्रमण को परीत अर्थात् सीमित कर लेता है। ज्ञान ज्ञान आत्मा का लक्षण है एवं वह आत्मा से अभिन्न है। वह आत्म-स्वरूप ही है। "जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया।" वाक्य १. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। २. जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं। अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्त संसारी॥ -तत्त्वार्थसूत्र १/२ -उत्तराध्ययन ३६/२६४ (३८)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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