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________________ से भी यह बात स्पष्ट होती है कि जो विज्ञाता है वह आत्मा है और जो आत्मा है वह विज्ञाता है। न्यायदर्शन में आत्मा को ज्ञान का अधिकरण माना गया है। आत्मा मूलतः न्यायदर्शन में जड़ है। उसमें ज्ञानगुण आगतगुण है। वेदान्त में आत्मा को नित्य, ज्ञानात्मक एवं आनन्दयुक्त स्वीकार किया गया है। बौद्धदर्शन में विज्ञानवाद के अनुसार विज्ञान अथवा ज्ञान ही सत् है। बौद्धों ने आत्मा का पृथक् अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है, विज्ञान या ज्ञान की सन्तति से ही पुनर्जन्म सिद्ध कर दिया है। सांख्यदर्शन में ज्ञान को जड़ प्रकृति का कार्य स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन में आत्मा के विभिन्न लक्षण हैं, जिनमें ज्ञान एवं दर्शन मुख्य हैं। ज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाय तो आत्मा में ज्ञान की न्यूमाधिकता होती रहती है, किन्तु आत्मा कभी ज्ञानरहित नहीं होता। ज्ञान का आवरण नष्ट हो जाने पर पूर्ण ज्ञान अथवा केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। आत्मा स्वभावतः ज्ञानात्मक है। यह ज्ञान बाह्य पदार्थों से आया हुआ नहीं है, किन्तु इससे बाह्य पदार्थों को जाना अवश्य जाता है। ज्ञानावरण कर्म आत्मा के ज्ञान को आवरित अवश्य करता है, किन्तु इससे आत्मा कभी ज्ञानशून्य नहीं बनती। यह अवश्य है कि कभी आत्मा में ज्ञान होता है एवं कभी अज्ञान। जब जीव मिथ्यादृष्टियुक्त होता है तो उसके ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है तथा जब वह सम्यग्दृष्टियुक्त होता है तो उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जानने की योग्यता का विकास होता है। बाह्य पदार्थों को जैनदर्शन में ज्ञान की उत्पत्ति में कारण नहीं माना गया, किन्तु ज्ञान के द्वारा उन्हीं बाह्य पदार्थों को जाना जाता है, जो अस्तित्ववान् हैं, थे या रहेंगे। ज्ञान जैनदर्शन में स्व-पर-प्रकाशक है, किन्तु इसके सम्बन्ध में द्रव्यानुयोग में स्पष्ट कथन प्राप्त नहीं है। दर्शनग्रन्थों में एवं कुन्दकुन्दाचार्य ने इसका स्पष्ट निरूपण किया है।' कुन्दकुन्द ने वहाँ ज्ञान की भाँति दर्शन को भी स्व-पर-प्रकाशक माना है। धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने दर्शन को स्व-संवेदन या अन्तर्चित् प्रकाशक माना है तथा ज्ञान को बाह्य प्रकाशक स्वीकार किया है। इससे दर्शन स्व-प्रकाशक एवं ज्ञान पर-प्रकाशक सिद्ध होता है। दर्शन एवं ज्ञान में क्या अन्तर है, इसे सिद्धसेनसूरि ने इस प्रकार स्पष्ट किया है "जं सामण्णगहणं दसणमेयं विसेसियं नाणं। दोण्ह वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ॥३ अर्थात् जो सामान्य ग्रहण है वह दर्शन है तथा जो विशेष ग्रहण है वह ज्ञान है। द्रव्यार्थिक नय से दर्शन सामान्य का ग्रहण करता है तथा पर्यायार्थिक नय से वह विशेष का ग्रहण करता है। वीरसेनाचार्य ने इस मान्यता पर आक्षेप किया है। उनका कथन है कि वस्तु सामान्य विशेषात्मक होती है। उसमें से सामान्य एवं विशेष का ग्रहण अलग-अलग नहीं होता, अपितु एक साथ होता है। वस्तु को सामान्य एवं विशेष में नहीं बाँटा जा सकता। वीरसेनाचार्य ने सामान्य ग्रहण को भी दर्शन स्वीकार किया है, किन्तु तब से सामान्य का अर्थ आत्मा करके आत्म-ग्रहण को दर्शन कहते हैं। वीरसेन के इस मन्तव्य पर भी प्रश्न खड़ा होता है कि यदि आत्म-ग्रहण को ही दर्शन कहा जायेगा तो दर्शन के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन आदि भेद किस प्रकार घटित होंगे। जिनभद्रगणि ने मतिज्ञान के एक भेद अवग्रह को परिभाषित करते हुए सामान्य ग्रहण को अवग्रह कहा है। यहाँ सिद्धसेन निरूपित दर्शन-लक्षण एवं जिनभद्रगणि के अवग्रह-लक्षण में कोई भेद नहीं रह जाता है क्योंकि दोनों में सामान्य ग्रहण मौजूद है। आगम तो दर्शन एवं ज्ञान को पृथक् मानता है, इसलिए दोनों का अलग-अलग प्रयोग हुआ है। दूसरी बात यह है कि दर्शनगुण दर्शनावरणकर्म के क्षय या क्षयोपशम से प्रकट होता है तथा ज्ञानगुण ज्ञानावरणकर्म के क्षय या क्षयोपशम से अभिव्यक्त होता है। दर्शन एवं ज्ञान में कुछ मौलिक भेद हैं, यथा-(१) ज्ञान साकार होता है एवं दर्शन निराकार होता है। (२) ज्ञान सविकल्पक होता है एवं दर्शन निर्विकल्पक होता है। (३) पहले दर्शन होता है एवं फिर ज्ञान होता है। (४) दर्शनावरणकर्म के क्षय या क्षयोपशम से दर्शन प्रकट होता है तथा ज्ञानावरणकर्म के क्षय या क्षयोपशम से ज्ञान प्रकट होता है। (५) वस्तु के प्रथम निर्विशेष संवेदन को दर्शन कहा जा सकता है तथा ज्ञान को सविशेष (साकार) संवेदन कहा जा सकता है। सामान्य ग्रहण का अर्थ सामान्य का ग्रहण न करके सामान्य रूप से ग्रहण किया जाय तो सिद्धसेन के द्वारा प्रदत्त लक्षण में आक्षेप नहीं रहता। दर्शन में वस्तु का ग्रहण सामान्यरूपेण अर्थात् निर्विशेषरूपेण होता है। इसमें भेद का ग्रहण नहीं होता। ज्ञान के पाँच एवं अज्ञान के तीन प्रकार हैं। ज्ञान के पाँच प्रकार हैं-(१) आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान), (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यायज्ञान और (५) केवलज्ञान। अज्ञान के तीन प्रकार हैं-(१) मतिअज्ञान, (२) श्रुतअज्ञान और (३) विभंगज्ञान। १. (i) म्व-परव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्। (ii) अप्पाणं विणु णाणं गाणं विणु अप्पगो ण संदेहो। म्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि॥ २. (i) अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात्। (ii) वीरसेनाचार्य ने दर्शन को अंतरंग उपयोग एवं ज्ञान को बहिरंग उपयोग भी कहा है। ३. सन्मतिप्रकरण २/१ ४. धवला, पुस्तक १, पृ. १४९ -प्रमाणनयतत्त्वालोक १/१ -नियमसार १७१ -धवला, पुस्तक १, पृ. १४६ -द्रष्टव्य, धवला, पुस्तक १३, पृ. २०८ ( ३९)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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