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________________ व्याकरणदर्शन में शब्द के चार प्रकार या अवस्थाएँ हैं - ( १ ) परा, (२) पश्यन्ती, (३) मध्यमा और (४) वैखरी । उच्चारण के पूर्व शब्दतत्त्व अपनी मूल अवस्था में रहता है। उसी शब्दतत्त्व को भर्तृहरि ने अनादि, अक्षर ब्रह्म कहा है। इसे विद्वानों ने परावाणी कहा है। पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाक् इसी के विवर्त हैं। वक्ता की विवक्षा के प्रयत्न से सूक्ष्म स्पन्दन उत्पन्न होता है। इस स्थिति में ज्ञात या अनुभूत अर्थ और शब्द का योग होता है। वाणी की यह स्थिति 'पश्यन्ती' है। नाभिदेशस्थ पश्यन्ती वाणी जब प्राणवायु से उद्वेजित होकर हृदयाकाश में आ जाती है तो उसे मध्यमा वाणी कहा जाता है। लोक व्यवहार में जिस ध्वन्यात्मक शब्द का प्रयोग किया जाता है वह वैखरी वाणी है। श्रोत्र के द्वारा वैखरी भाषा को ही सुना जाता है। जैनागमों में जिस भाषा का वर्णन प्राप्त है वह व्याकरणदर्शन की वैखरी वाक् ही है। भाषा के लिए कहा गया है कि भाषा जब बोली जाती है तभी वह भाषा कहलाती है, उसके पूर्व एवं पश्चात् नहीं। जैनदर्शन के अनुसार भाषा के मुख्यतः चार प्रकार हैं- (१) सत्य, (२) मृषा, (३) सत्यामृषा (मिश्र) और (४) असल्यामृषा (व्यवहार) भाषा । सत्य भाषा जनपद सत्य, सम्मत सत्य आदि के भेद से १० प्रकार की कही गई है। मृषा भाषा के भी क्रोधनिसृता, माननिसृता आदि दस प्रकार हैं। सत्यामृषा के उत्पन्न मिश्रिता आदि दस तथा असत्यामृषा के आमंत्रणी आदि बारह भेद प्रतिपादित हैं। इनमें से केवली दो ही प्रकार की भाषा बोलते हैं - (१) सत्य और (२) असत्यामृषा । जैन आगमों में भाषाविषयक चिन्तन समृद्ध है, जो आधुनिक भाषाविदों के लिए भी अध्ययन की उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करता है। आगमों की मान्यता है कि जीव भाषावर्गणा के जिन द्रव्यों को सत्य भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वह उन्हें सत्य भाषा के रूप में निकालता है। जिन द्रव्यों को वह मृषा भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें मृषा भाषा के रूप में निकालता है। इसी प्रकार सत्यामृषा एवं असत्यामृषा भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करने पर क्रमशः उन्हीं भाषाओं के रूप में उन द्रव्यों को निकालता है। योग-प्रयोग योग एवं प्रयोग में बहुत सूक्ष्म भेद है। मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को जहाँ योग कहा गया है वहाँ योग के साथ जीव के व्यापार का जुड़ जाना प्रयोग है। मन, वचन एवं काया के कारण जीव के प्रदेशों में जो स्पन्दन या हलचल होती है उसे भी योग कहा गया है। योगदर्शन में 'योग' शब्द का प्रयोग 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' अर्थ में हुआ है। भगवद्गीता में कर्म के कौशल को योग कहा गया है। योग एक प्रकार से समाधि के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। जैनाचार्यों ने योग का समाधि अर्थ स्वीकार करते हुए योगविषयक ग्रन्थों की रचना की है किन्तु आगम में योग का अर्थ समाधि नहीं है। आगम में तो मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को योग कहा गया है। यह योग कर्मबन्ध में निमित्त बनता है। विशेषतः प्रकृतिबंध एवं प्रदेशबंध में योग को निमित्त माना गया है। योग एवं प्रयोग में जो स्पष्ट भेद है वह यह कि प्रयोग में जीव के व्यापार की प्रधानता होती है जबकि योग में मन, वचन एवं काया के व्यापार की प्रधानता होती है । ३ योग के जिस प्रकार तीन एवं पन्द्रह भेद हैं उसी प्रकार प्रयोग के भी वे ही तीन एवं पन्द्रह भेद हैं। तीन भेद हैं- ( १ ) मन, (२) वचन और (३) काया । पन्द्रह में इनका ही विस्तार है। तदनुसार मन के ४, वचन के ४ और काया के ४ भेदों की गणना होती है। मन के ४ भेद हैं- सत्य, मृषा, सत्यामृषा एवं असत्यामृषा । वचन के भी इसी प्रकार सत्य, मृषा, सत्यामृषा एवं असत्यामृषा भेद होते हैं। काया के ७ भेद हैं(१) ओदारिकशरीरकाय, (२) औदारिकमिश्रकाय, (३) वैक्रियशरीरकाय, (४) वैक्रियमिश्रकाय (५) आहारकशरीरकाय, (६) आहारकमिश्रशरीरकाय और (७) कार्मणशरीरकाय । मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें मनरूप में परिणत करना तथा चिन्तन-मनन करना मनोयोग है। भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर वस्तु स्वरूप का कथन करना, बोलना वचनयोग है। औदारिक आदि शरीरों से हलन चलन, संक्रमण आदि क्रियाएँ करना काययोग है । मन आत्मा से भिन्न रूपी एवं अचित्त है। वह अजीव होकर भी जीवों के होता है, अजीवों के नहीं । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में मन के सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय तथ्य आया है कि मनन करते समय ही मन 'मन' कहलाता है उसके पूर्व एवं पश्चात् नहीं । ४ , मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति के आधार पर दण्ड भी तीन प्रकार के कहे गए हैं - ( १ ) मनोदण्ड, (२) वचनदण्ड और (३) कायदण्ड । गुप्ति भी तीन प्रकार की कही गई है - ( १ ) मनोगुप्ति, (२) वचनगुप्ति, और (३) कायगुप्ति । द्रव्यानुयोग के प्रयोग अध्ययन में गतिप्रपात का भी समावेश किया गया है। इसके अन्तर्गत पाँच प्रकार की गतियों का निरूपण हुआ है, यथा - (१) प्रयोगगति (२) ततगति, (३) बन्धछेदनगति, (४) उपपातगति और (५) विहायोगति । विहायोगति के अन्तर्गत १७ प्रकार की गति का निरूपण है जिनमें स्पृशद्गति अस्पृशद्गति आदि की गणना की गई है। गति का यह वर्णन वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। विशेषतः अस्पृशद्गति का वर्णन आश्चर्यजनक है जिसके अनुसार परमाणु पुद्गलों से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को परस्पर स्पर्श किए बिना होने वाली गति को अस्पृशद्गति कहा गया है। स्पृशद्गति के उदाहरण तो आधुनिक विज्ञान में उपलब्ध है, यथा रेडियो, दूरदर्शन आदि की तरंगें स्पृशदुर्गात वाली हैं, किन्तु अस्पृशद्गति का तथ्य शोध का विषय है। १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । २. योगः कर्मसु कौशलम् । ३. साध्वी डॉ. मुक्तिप्रभा जी ने अपने शोधप्रबन्ध 'योग-प्रयोग अयोग' में योग एवं प्रयोग के भिन्न अर्थों को ग्रहण किया है। ४. द्रव्यानुयोग, भाग १, पृ. ५४० ( ३७ ) - योगसूत्र १/२
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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