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________________ परिशिष्ट : ३ गणितानुयोग तिर्यक्लोक पृ. १२२ तिरियलोए खेत्ताणुपुव्विस्स परूवणं सूत्र ४ (ख) तिरियलोयखेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा १. पुव्वाणुपुब्बी, २ . पच्छाणुपुब्वी, ३ अणाणुपुवी । प से किं तं पुव्वाणुपुब्वी ? उ. पुव्वाणुपुब्बी जंबुद्दीवे, लवणे, धायइ, कालोय, पुक्खरे, वरुणे । खीर, घय, खोय, नंदी, अरुणवरे, कुंडले, रूयगे ॥१ ॥ जंबुद्दीवाओ खलु निरंतरा, सेसया असंखइमा । भुवगवर, कुसवरा वि य कोंचवरा भरणमाइया ॥२॥ आभरण, वत्थ, गंधे, उप्पल, तिलये य पउम, निहि, रूयणे । वासहर, दह णईओ विजया वक्खार, कप्पिंदा ॥ ३ ॥ कुरू मंदर, आवासा कूडा नक्खत्त, चंद सूरा य दिये नागे जावे भूये य सयंभुरमणे ॥४॥ सेतं पुव्वाणुपुवी । प से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? उ. पच्छाणुपुब्बी सयंभूरमणे य भूए य जाव जंबुद्दीवे । सेनं पच्छा। प से कि त अणाणुपुखी ? उ. अणाणुपुब्बी एयाय चेव एगादियाए एगुत्तरियाए अखेरजगचडगवाए दीए अण्णमण्णासो दुरूचूणो । सेत अणाणुपुरी। - अणु. सु. १६८-१७१ पृ. १२४ के प्रारम्भ में जंबुद्दीव वण्णम्म संगहणी गाहा सूत्र ४ (क) १. खंडा २ जोयण ३. वासा ४. पव्वय ५. कूडाय ६. तित्थ ७. मंदीओ। ८. विजय . दूदह १० संगहणी ॥ सलिलाओ पिंडए होइ - जंबू. वक्ख. ६, सु. १५८ १९९७ तिर्यक्लोक क्षेत्रानुपूर्वी का प्ररूपण तिर्यग् (मध्य) लोकक्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद कहे गये हैं, यथा १. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी, ३. अनानुपूर्वी । प्र. मध्यलोक क्षेत्र पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? उ. मध्यलोक क्षेत्र पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखंडद्वीप, कालोदधिसमुद्र, पुष्करद्वीप ( पुष्करोदसमुद्र), वरुणद्वीप ( वरुणोदसमुद्र), क्षीरद्वीप (क्षीरोदसमुद्र), घृतद्वीप (धृतोदसमुद्र), इखुवरद्वीप ( इक्षुवरसमुद्र), नन्दीद्वीप ( नन्दीसमुद्र), अरुणवरद्वीप ( अरुणवरसमुद्र), कुण्डलद्वीप ( कुण्डलसमुद्र), रूचकद्वीप ( रूचकसमुद्र ) ॥१॥ जम्बूद्वीप से लेकर ये सभी द्वीप समुद्र बिना किसी अन्तर के एक-दूसरे को घेरे हुए स्थित हैं। इनके आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों के पश्चात् भुजगवर है, इसके बाद फिर असंख्यात द्वीप समुद्रों के पश्चात् कुशवरद्वीप समुद्र इसके बाद असंख्यात द्वीप समुद्रों के पश्चात् क्रोंचवर द्वीप है ॥२॥ पुनः असंख्यात द्वीप- समुद्रों के पश्चात् आभरणों आदि के सदृश शुभ नाम वाले द्वीप समुद्र हैं। यथा- आभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल, तिलक, पद्म, निधि, रत्न, वर्षधर, हूद, नदी, विजय, वक्षस्कार, कल्पेन्द्र ॥ ३ ॥ कुरू, मंदर, आवास, कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्यदेव, नाग, यक्ष, भूत आदि के पर्यायवाचक नामों वाले द्वीप समुद्र असंख्यात हैं। और अन्त में स्वयंभूरमणद्वीप एवं स्वयंभूरमणसमुद्र है ॥४ ॥ यह मध्यलोक क्षेत्र पूर्वानुपूर्वी का कथन है। प्र. मध्यलोक क्षेत्र पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? उ. स्वयंभूरमणसमुद्र, भूतद्वीप आदि से जम्बूद्वीप पर्यन्त व्युत्क्रम से द्वीप समुद्रों के कथन करने को मध्यलोक क्षेत्रपश्चानुपूर्वी कहते हैं। प्र. मध्यलोक क्षेत्र अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? उ. एक से प्रारम्भ कर असंख्यात पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर उनका परस्पर गुणाकार करने पर निष्पन्न राशि में से आद्य और अन्तिम इन दो भंगों को छोड़कर मध्य के समस्त भंग मध्यलोक क्षेत्रअनानुपूर्वी कहलाते हैं। जंबूद्वीप वर्णन की संग्रहणी गाथा १. खण्ड २. योजन ३. वर्ष ४. पर्वत ५. कूट ६. तीर्थ ७. श्रेणियाँ ८. विजय ९ द्रह तथा १० नदियाँ इन दस की यह संग्रहणी गाथा है।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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