SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ३ धर्मकथानुयोग) जायं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एवमई परिकहेइ तावं च णं से देवे तं देतं हव्यमागए। तएां से देवे समण भगवं महावीरे तिक्खुतो वंद नमस वदत्ता नसता एवं क्यासि प. एवं खलु भंते! महासुके कप्पे महासामाणे विमाणे एगे मायिमिच्छद्दिद्विउययन्त्रए देवे ममं एवं वयासी "परिणममाणा पोग्गला नो परिणया अपरिणया परिणमतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया ।" तए णं अहे तं मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वयासी परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, णो अपरिणया, से कहमेयं भंते ! एवं ? उ. "गंगदत्ता !" ई समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी अहंपिणं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमिपरिणममाणा पोग्गला जाव नो अपरिणया, सच्चमेसे अट्ठे । तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ वंदित्ता नमसित्ता नच्चासने जाव पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ जाब आराहए भवद। तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ उट्ठेइ उट्ठित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी अहण भंते! गंगदत्ते देवे कि भवसिद्धिए अभवसिद्धिए ? एवं जहा सूरियाभो जाव बत्तीसइविहं नट्टविहिं उवदंसेइ उबदसेत्ता जाय तामेव दिसं पडिगए। भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी प. गंगदत्तस्स गं भंते देवस्स सा दिव्या देविड्ढी, दिव्या देवजुई जाय अणुष्पविद्वा ? उ. गोयमा ! सरीरं गया, सरीरं अणुष्पविट्ठा कूडागारसासादितो जाव सरीरं अणुष्पविद्धा' । - विया. सं. १६, उ. ५, सु. १-१५ १९८१ जब श्रमण भगवान महावीर गौतम से यह (उपर्युक्त) बात कर रहे थे इतने में ही वह देव (अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्नक) वहाँ आ पहुँचा। तब उस देव ने आते ही श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन नमस्कार किया और वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार पूछा प्र. भंते! महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उत्पन्न हुए एक मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्नक देव ने मुझे इस प्रकार पूछा"परिणमते हुए पुद्गल अभी परिणत नहीं कहे जाकर अपरिणत कहे जाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत ही कहे जाते हैं।" तब मैंने (इसके उत्तर में ) उस मायी मिथ्यादृष्टि देव से इस प्रकार कहा परिणमते हुए पुद्गल परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे पुद्गल परिणत हो रहे हैं, इसलिए परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, भंते ! इस प्रकार का मेरा कथन कैसा है ? उ. " हे गंगदत्त !” इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने गंगदत्त देव को इस प्रकार कहा गंगदत्त ! मैं भी इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि "परिणमते हुए पुद्गल यावत् अपरिणत नहीं है (किन्तु परिणत है)। यह अर्थ (सिद्धान्त) सत्य है।" तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर से यह उत्तर सुनकर और अवधारणा करके वह गंगदत्त देव हर्षित और सन्तुष्ट हुआ और उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार करके वह न अति दूर और न अतिनिकट बैठकर यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगा । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने गंगदत्त देव को और महती परिषद् को धर्मकथा कही यावत् जिसे सुनकर जीव आराधक हुए। उस समय गंगदत्त देव श्रमण भगवान महावीर से धर्मदेशना सुनकर और अवधारण करके हृष्ट तुष्ट हुआ और फिर उसने खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार किया और वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा भंते! मैं गंगदत्त देव भवसिद्धिक हूँ या अभवसिद्धिक हूँ? राजप्रश्नीय सूत्र में कथित सूर्याभ देव के समान उत्तर जानना चाहिए गंगदत्त देव ने भी उसी प्रकार बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि प्रदर्शित की और फिर वह जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया। 'भंते !' इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् इस प्रकार पूछा प्र. भंते! गंगदत्त देव की यह दिव्य देवद्धिं दिव्य देवधुति यावत् कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ? उ. गौतम ! वह दिव्य देवर्द्धि उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई। यहाँ कूटाकारशाला का दृष्टांत यह शरीर में अनुप्रविष्ट हो गई पर्यन्त समझना चाहिए। १. गंगदत्त के पूर्वभव प्रव्रज्या आदि का वर्णन धर्मकथानुयोग भाग १ खण्ड २, पृ. २९-३० पर देखें।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy