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________________ ( १९८० । "भंते ! त्ति" भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी प. अन्नयाणं भंते ! सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सक्कारेइ जाव पज्जुवासइ, किं णं भंते ! अज्ज सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ पुच्छित्ता संभंतियवंदणएणं वंदइ वंदित्ता जाव पडिगए? “गोयमा !" समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी उ. एवं खलु गोयमा ! तेणं कोलणं तेणं समएणं महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे दो देवा महिड्ढीया जाव महेसक्खा एगविमाणंसि देवत्ताए उववन्ना, तं जहा१.मायिमिच्छादिट्ठिउववन्नए य, २.अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नए य। तए णं से मायिमिच्छादिट्ठिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वयासी“परिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया।" द्रव्यानुयोग-(३) "भंते !" इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार पूछाप्र. भंते ! अन्य दिनों में (जब कभी) देवेन्द्र देवराज शक्र आता है, तब आप देवानुप्रिय को वन्दन नमस्कार करता है, आपका सत्कार सन्मान करता है यावत् आपकी पर्युपासना करता है, किन्तु भंते ! आज तो देवेन्द्र देवराज शक्र आप देवानुप्रिय से संक्षेप में आठ प्रश्नों के उत्तर पूछकर और उत्सुकतापूर्वक वन्दना नमस्कार करके यावत् शीघ्र ही चला गया। (इसका क्या कारण है ?) "गौतम !" इस प्रकार से सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से इस प्रकार कहागौतम ! उस काल और उस समय में महाशुक्र कल्प के महासामान्य नामक विमान में महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न दो देव एक ही विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए, यथा१. मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्नक, २. अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्नक। एक दिन उस मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्नक देव ने अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्नक देव से इस प्रकार कहा"परिणमते हुए पुद्गल नहीं कहलाते अपरिणत कहलाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं, इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत हैं।" इस पर अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्नक देव ने मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्नक देव से कहा-“परिणमते हुए पुद्गल परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे परिणत हो रहे हैं इसलिए ऐसे पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं।" इस प्रकार कहकर मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्नक देव को पराजित किया। इस प्रकार पराजित करने के पश्चात् (अमायी सम्यग्दृष्टि देव ने) अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर अवधिज्ञान से मुझे देखा, अवधिज्ञान से मुझे देखकर उसे ऐसा यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि'जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में उल्लूकतीर नामक नगर के बाहर एक जम्बूक नाम के उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी यथायोग्य अवग्रह लेकर यावत् विचरते हैं। अतः मुझे (वहाँ जाकर) श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार यावत पर्युपासना करके यह तथारूप (उपर्युक्त) प्रश्न पूछना श्रेयस्कर है', ऐसा विचार किया ऐसा विचार करके चार हजार सामानिक देवों के परिवार के साथ सूर्याभ देव के समान वाद्यादि की ध्वनियों के साथ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में उल्लूकतीर नगर के जम्बूक उद्यान में मेरे पास आने के लिए उसने प्रस्थान किया। तब वह देवेन्द्र देवराज शक्र उस देव की दिव्य देवर्द्धि दिव्य देवधुति, दिव्य देवानुभाव और दिव्य तेजःप्रभा को सहन नहीं करता हुआ मेरे पास आया और मुझसे संक्षेप में आठ प्रश्न पूछे और पूछकर शीघ्र ही वन्दना नमस्कार करके यावत् चला गया। तए णं से अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नए देवे तं मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वयासि-“परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला. परिणया, नो अपरिणया।" तं मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगं देवं पडिहणइ, एवं पडिहणित्ता ओहिं पउंजइ, ओहिं पउंजित्ता मम ओहिणा आभोएइ, ममं ओहिणा आभोइत्ता अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था ‘एवं खलु समणं भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे उल्लुंयतीरस्स नगरस्स बहिया एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ, ते सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाब पज्जुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए' लि कटु एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता चउहिं वि सामाणियसाहस्सीहिं, सपरिवारो जहा सूरियाभस्स जाव निग्घोसनाइतरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयतीरे नगरे जेणेव एगजंबुए चेइए जेणेव मम अंतियं तेणेव पहारेत्थ गमणए। तए णं से सक्के देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देविडूिढ, दिव्वं देवजुई, दिव्वं देवाणुभावं, दिव्वं तेयलेस्सं अहमाणे मम अट्ठउक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ पुच्छित्ता संभंतिय जाव पडिगए।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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