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________________ परिशिष्ट ३ धर्मकथानुयोग : चिरसंसिद्धोऽसि मे गोयमा ! चिरसंधुओऽसि मे गोयमा ! चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा ! चिरसि ओऽसि मे गोयमा ! चिराग ओऽसि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीऽसि मे गोयमा ! अनंतरं देवलोए, अनंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इतो चुया, दोविल्लाएगा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो -विया. स. १४, उ. ७, सु. १-२ भाग १, खण्ड २, पृ. २६ गंगदत्त देवेण मायीमिच्छादिडिउबवन्त्रण देवरस अड्ड पहाणं समाहाणं सूत्र ६१ (क) तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नामं होत्था, वण्णओ एगजंबुए चेइए वण्णओ। तेणं काणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ । तेणें काले तेणं समएणं सके देविदे देवराया वज्जपाणी जाब दिव्वेणं जाणविमाणेणं आगओ जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वदत्ता नर्मसत्ता एवं वयासी प. देवे पणं भंते महिइदीए जाब महेसले बाहिरए पोष्णले अपरियाइत्ता पभू आगमित्तए ? उ. सक्के ! नो इणट्ठे समट्ठे । प. देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू आगमित्तए ? उ. हंता, पभू । पं. देवे णं भंते महिदीए जाब महेसवे एवं एएन अभिलावेणं १. गमित्तए वा, २. भासित्तए वा ३ विआगरित्तए वा, ४. उम्मिसावेत्तए वा, निमिसावेत्तए वा, ५. आउंटावेत्तए वा, पसारेतए वा ६. दाणं वा सेज्ज वा निसीहियं वा चेइत्तए वा ७. विव्यित्तए वा. ८. परियारेतए वा ? , उ. हंता, पभू। इमाइं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ पुच्छित्ता संभतियर्वदणणं वंद, संभतिय वंदणएणं वंदित्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहइ दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिस पडिगए। १९७९ गौतम ! तू मेरे साथ चिरकाल से संश्लिष्ट है। हे गौतम! तू मेरा चिरकाल से संस्तुत है । हे गौतम! तू मेरा चिर-परिचित है। हे गौतम! तू मेरे साथ चिरकाल से प्रीति करने वाला है। हे गौतम! तू मेरा चिरकाल से अनुगामी है। हे गौतम! तू मेरे साथ चिरकाल से अनुवृत्ति करने वाला है। इस वर्तमान भव से पूर्व देवलोक में और इसके बाद के मनुष्य भव तेरा मेरे साथ स्नेह सम्बन्ध था और अधिक क्या कहूँ, यहाँ से मरकर ( इस शरीर का त्याग कर) और च्युत होकर हम दोनों तुल्य ( एक जैसे ) और एकार्थ (एक लक्ष्य को सिद्ध करने वाले) व विशेषता और भिन्नता से रहित हो जायेंगे। गंगदत्त देव द्वारा मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्नक देव के आठ प्रश्नों का समाधान उस काल और उस समय में उल्लूकतीर नामक नगर था, वहाँ एक जम्बूक नाम का उद्यान था, इन दोनों का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। उस काल और उस समय में श्रमण महावीर स्वामी वहाँ पधारे यावत् परिषद् ने पर्युपासना की। उस काल और उस समय देवेन्द्र देवराज वज्रपाणि शक्र यावत् दिव्य यान विमान से आया और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आया और आकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार किया और वन्दन नमस्कार कर उसने इस प्रकार पूछाप्र. भंते! क्या महर्द्धिक पातु महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना यहाँ आने में समर्थ है ? उ. हे शक्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! क्या महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके यहाँ आने में समर्थ है ? हाँ, शक्र ! वह समर्थ है। भंते! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव इसी अभिलाप से उ. प्र. १. गमन करने, २. बोलने, ३. उत्तर देने, ४. आँखें खोलने और बन्द करने, ५. शरीर के अवयव को सिकोड़ने और पसारने, ६. स्थान शय्या, निषद्या को भोगने, ७. विक्रिया (विर्कुचणा) करने अथवा ८. परिचारणा (विषय भोग) करने में समर्थ है ? उ. डॉ, शक्र, वह (गमन यावत् परिचारणा करने में समर्थ है। देवेन्द्र देवराज शक़ ने इन (पूर्वोक्त) उत्थित (अविस्तृतसंक्षिप्त) आठ प्रश्नों के उत्तर पूछे और पूछकर फिर भगवान को उत्सुकतापूर्वक वन्दन किया । वन्दन करके उसी दिव्य यान- विमान पर चढ़कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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