SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेक भवों तक एक ही प्रकार की गति आदि का रहना कायस्थिति कहा जाता है, किन्तु स्थिति अध्ययन में कायस्थिति एवं भवस्थिति का प्रयोग आयुष्यकर्म की स्थिति के अर्थ में हुआ है। देवों एवं नारकियों की भवस्थिति कही गई है तथा मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों की कायस्थिति कही गई है। किन्तु एक भव की दृष्टि से चौबीस ही दण्डकों के जीवों की स्थिति का निरूपण करना स्थिति अध्ययन का लक्ष्य रहा है। आहार जीव जिन पुद्गलों को शरीर, इन्द्रिय आदि के निर्माण एवं संचालन हेतु ग्रहण करता है, उन्हें आहार कहते हैं। ग्रहण करने की विधि के आधार पर आहार चार प्रकार का निरूपित है-(१) लोमाहार, (२) प्रक्षेपाहार (कवलाहार), (३) ओजाहार और (४) मनोभक्षी आहार। लोमों या रोमों के द्वारा आहार योग्य पद्गलों को ग्रहण करना लोमाहार है। कवल या ग्रास के रूप में आहार ग्रहण करना कवलाहार कहा जाता है। सम्पूर्ण शरीर के द्वारा आहार योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना ओजाहार है। यह ओजाहार जीव के द्वारा जन्म ग्रहण करते समय अपर्याप्तक अवस्था में एक बार ही किया जाता है। मन के द्वारा आहार करना मनोभक्षी आहार कहलाता है। मनोभक्षी आहार केवल देवों में उपलब्ध होता है। लोमाहार सभी चौबीस दण्डकों के जीव करते हैं। प्रक्षेपाहार द्वीन्द्रिय से लेकर मनुष्य तक के औदारिकशरीरी जीव करते हैं। नैरयिक एवं देवगति के देव वैक्रियशरीरी होने के कारण कवलाहार नहीं करते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के मुख नहीं होता, अतः वे भी कवलाहार नहीं करते हैं। ____ चार स्थितियों में जीव आहार ग्रहण नहीं करता है-(१) विग्रहगति में, (२) केवली समुद्घात के समय, (३) शैलेशी अवस्था में एवं (४) सिद्ध होने पर। केवली के कवलाहार को लेकर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मान्यता में भेद है। दिगम्बर मान्यता के अनुसार केवली कवलाहार नहीं करते हैं, जबकि श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार कवलाहार एवं केवलज्ञान में परस्पर कोई विरोध नहीं है, इसलिए केवली भी कवलाहार ग्रहण करते हैं। श्वेताम्बर दार्शनिक वादिदेवसूरि ने प्रतिपादित किया है कि कवलाहार ग्रहण करने से केवली असर्वज्ञ नहीं हो जाता, क्योंकि कवलाहार एवं सर्वज्ञता में परस्पर कोई विरोध नहीं है।२ शरीर जब तक जीव आठ कर्मों से मुक्त नहीं होता है तब तक उसका शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहता है। यह जीव एवं शरीर का अनादि सम्बन्ध है। संसारी जीव सशरीरी होते हैं तथा सिद्ध जीव अशरीरी होते हैं। शरीर की प्राप्ति नामकर्म से होती है। जब तक नामकर्म शेष है तब तक शरीर की प्राप्ति होती रहती है। शरीर पाँच प्रकार के हैं-(१) औदारिक, (२) वैक्रिय, (३) आहारक, (४) तेजस् और (५) कार्मण। प्रधान या उदार पुद्गलों से निर्मित शरीर औदारिक कहलाता है। विविध और विशेष प्रकार की क्रियाएँ करने में सक्षम शरीर वैक्रिय कहा जाता है। आहारकलब्धि से निर्मित शरीर आहारक शरीर होता है। आहार के पाचन में सहायक तथा तेजोलेश्या की उत्पत्ति का आधार शरीर तेजस् कहलाता है। यह तेजस् पुद्गलों से बना होता है। कार्मण पुद्गलों से निर्मित शरीर कार्मण कहलाता है। इन पाँच शरीरों में से तेजसू और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं। ये दोनों शरीर जीव में तब भी विद्यमान होते हैं जब वह एक काया को छोड़कर दूसरी काया को धारण करने के बीच विग्रहगति में होता है। औदारिकशरीर तिर्यञ्चगति के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों में एवं मनुष्यों में पाया जाता है। वैक्रियशरीर नैरयिकों एवं देवों में जन्म से होता है तथा मनुष्य एवं संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय को विशेष लब्धि से प्राप्त होता है। नैरयिक एवं देवों को जन्म से प्राप्त होने वाले वैक्रियशरीर को औपपातिक कहा गया है तथा तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य को प्राप्त होने वाले वैक्रियशरीर को लब्धिप्रत्यय कहा गया है। विभिन्न विक्रियाएँ करने के कारण बादर वायुकाय के जीवों में भी वैक्रियशरीर माना गया है। आहारकशरीर मात्र प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती चौदह पूर्वधारी मनुष्यों में पाया जाता है। पाँच शरीरों में कार्मणशरीर अगुरुलघु है तथा शेष चार शरीर गुरुलघु हैं। शरीर की उत्पत्ति जीव के उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषाकार पराक्रम के निमित्त से होती है। संहनन एवं संस्थान की विषय-वस्तु भी शरीर से सम्बद्ध है। इसलिए शरीर अध्ययन में इनके सम्बन्ध में भी सामग्री सन्निहित है। विकुर्वणा विकुर्वणा प्रायः वैक्रियशरीर के माध्यम से की जाती है। विकुर्वणा का अर्थ है विभिन्न प्रकार के रूप, आकार आदि की रचना करना। भावितात्मा अनगार, देव, नैरयिक, वायुकायिक जीव एवं बलाहक प्रायः इस प्रकार की विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा या विक्रिया मुख्यतः तीन प्रकार की होती है-(१) बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके की जाने वाली, (२) बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना की जाने वाली तथा (३) बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके एवं ग्रहण न करके की जाने वाली विकुर्वणा। विकुर्वणा के तीन भेद आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण करने, ग्रहण न करने एवं मिश्रित स्थिति से भी बनते हैं। जब बाह्य एवं आन्तरिक दोनों प्रकार के पुदगलों को ग्रहण करने, ग्रहण न करने एवं मिश्रित होने की स्थिति बनती है तब भी विक्रिया के तीन भेद बनते हैं। विकुर्वणा के लिए वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त पुद्गलों की आवश्यकता होती है। भावितात्मा अनगार विभिन्न रूपों की विकुर्वणा कर सकता है। वह अश्व, हाथी, सिंह, बाघ आदि का रूप बनाकर अनेक योजन तक १. द्रव्यानुयोग, भाग १, पृ. २८७ २. न च कवलाहारवत्त्वेन तस्यासर्वज्ञत्वं, कवलाहारसर्वज्ञत्वयोरविरोधात्। . -प्रमाणनयतत्त्वालोक २/२७ (३४)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy