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________________ गमन कर सकता है। यही नहीं वह ग्राम, नगर आदि के रूपों की भी विकुर्वणा कर सकता है। उल्लेखनीय है कि भावितात्मा अनगार में विभिन्न विकुर्वणाओं को करने का सामर्थ्य होते हुए भी वे कभी इस प्रकार की विकुर्वणाएँ नहीं करते हैं जो विकुर्वणाएं की जाती हैं, उन्हें मायी अनगार करता है, अमायी अनगार नहीं। असंवृत अनगार एक वर्ण का दूसरे वर्ण में, एक रस का दूसरे रस आदि में परिणमन करने में समर्थ हैं। देव दो प्रकार के हैं - ( १ ) मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक एवं (२) अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक। इनमें अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव यथेच्छ विकुर्वणा कर सकते हैं, किन्तु मायी मिध्यादृष्टि देव यथेच्छ विकुर्वणा नहीं कर पाते मायी मिथ्यादृष्टि देव यदि ऋजु रूप की विकुर्वणा करना चाहते हैं तो वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है और जब वे वक्ररूप की विकुर्वणा करना चाहते हैं तो ऋजुरूप की विकुर्वणा हो जाती है। अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव के साथ ऐसा नहीं होता। वह जब जिस रूप की विकुर्वणा करना चाहता है तब उसी रूप की विकुर्वणा हो जाती है। महर्द्धिक देव एकरूप यावत् अनेक रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं। ये हजारों रूपों की विकुर्वणा करके परस्पर एक-दूसरे के साथ संग्राम करने में समर्थ हैं, किन्तु वैक्रियकृत वे शरीर एक ही जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं। नैरयिकों में प्रथम नरक से लेकर पंचम नरक तक के नैरयिक एक रूप की भी विकुर्वणा करते हैं और अनेक रूपों की भी विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करने से उनकी वेदना की उदीरणा होती है। छठी एवं सातवीं नरक के नैरयिक गोबर के कीड़ों के समान बहुत बड़े वज्रमय मुख वाले रक्तवर्ण कुंथुओं के रूपों की विकुर्वणा करते हैं। वायुकाय के जीव एवं बलाहक (मेघ पंक्ति) भी अपने सामर्थ्य के अनुसार विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा आत्म-कर्म एवं आत्म-प्रयोग से होती है, पर-कर्म एवं पर प्रयोग से नहीं सम्यग्दृष्टि देवों में नवग्रैवेयक एवं पाँच अनुत्तरविमानवासी देव अनेकविध विकुर्वणा करने में समर्थ होते हुए भी विकुर्वणा नहीं करते हैं। इन्द्रिय इन्द्र का अर्थ है आत्मा । जो आत्मा (इन्द्र) का लिंग है वह इन्द्रिय है। इन्द्रियाँ व्यावहारिक दृष्टि से आभिनिबोधिक ज्ञान में सहायभूत होती हैं। श्रुतज्ञान आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए श्रुतज्ञान में भी इन्द्रियों को निमित्त माना जा सकता है। जैनदर्शन में 'इन्द्रिय' शब्द से मन का ग्रहण नहीं होता है। मन इसीलिए अनिन्द्रिय या नोइन्द्रिय कहा गया है। इन्द्रियाँ पाँच प्रकार की हैं - (१) श्रोत्रेन्द्रिय, (२) चक्षु-इन्द्रिय, (३) घ्राणेन्द्रिय, (४) रसनेन्द्रिय और (५) स्पर्शनेन्द्रिय ये पाँचों इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियों के नाम से जानी जाती हैं जैनेतरदर्शनों में पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी स्वीकार की गई हैं, यथा - (१) पाणि (हाथ), (२) पाद (पैर), (३) पायु, (४) उपस्थ एवं (५) वाक्। जैनदर्शन में कर्मेन्द्रियों का अलग से कहीं उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु इनका समावेश शरीर के अंगोपांगों में हो जाता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों में क्षेत्र से शब्द का, चक्षु से रूप का, घ्राण से गन्ध का जिह्वा से रस का तथा स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान होता है। वर्णादि के भेदों के आधार पर पाँच इन्द्रियों के २३ विषय और २४० विकार माने जाते हैं। शब्द एवं रूप विषय को आगम में काम कहा गया है तथा गन्ध, रस एवं स्पर्श को भोग कहा गया है। पाँचों को मिलाकर काम भोग कहा जाता है। पाँच इन्द्रियों में चक्षु को छोड़कर शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं अर्थात् वे विषयों के स्पृष्ट होने पर ही उनका ज्ञान कराती हैं, अन्यथा नहीं। जबकि चक्षु इन्द्रिय एवं मन को अप्राप्यकारी माना गया है, क्योंकि ये विषयों से अस्पृष्ट रहकर ही उनका ज्ञान करा देते हैं। न्याय-वैशेषिकदर्शन में चक्षु को भी प्राप्यकारी माना गया है तथा बौद्धदर्शन में चक्षु एवं धोत्र दो इन्द्रियों को अप्राप्यकारी कहा गया है। पाँचों प्रकार की इन्द्रियाँ द्रव्य एवं भाव के भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। आगम में द्रव्येन्द्रिय के आठ भेद प्रतिपादित हैं-दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो प्राण, एक जिह्वा और एक स्पर्शन। भावेन्द्रिय पाँच प्रकार की कही गई हैं - श्रोत्र, चक्षु, प्राण, जिह्वा और स्पर्शन । तत्त्वार्थसूत्र में इन्द्रिय के द्रव्य एवं भाव भेद करते समय द्रव्येन्द्रिय के दो प्रकार कहे गए हैं- (१) निर्वृत्ति एवं (२) उपकरण निर्वृति का अर्थ है रचना | निर्माण नामकर्म एवं अंगोपांग नामकर्म के फलस्वरूप विशिष्ट पुद्गलों से इन्द्रिय की रचना होना निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय है। यह इन्द्रिय का आकार मात्र होता है। उपकरण द्रव्येन्द्रिय निर्वृत्ति का उपघात नहीं होने देती तथा उसकी स्थिति आदि में सहायता करती है। भावेन्द्रिय भी दो प्रकार की होती है (१) लब्धि और (२) उपयोग लब्धि का अर्थ है जानने की शक्ति जानने की शक्ति ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। उपयोग का तात्पर्य है जानने की शक्ति का व्यापार । जिस जीव में जितनी इन्द्रियाँ पायी जाती है, वह जीव उसी नाम से पुकारा जाता है, यथा-जिस जीव में एक स्पर्शनेन्द्रिय पायी जाती है उसे एकेन्द्रिय; जिसमें स्पर्श एवं रसना ये दो इन्द्रियाँ पायी जाती हैं उसे द्वीन्द्रिय; जिसमें स्पर्शन, रसना एवं घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ पायी जाती हैं उसे त्रीन्द्रिय; जिसमें चक्षु सहित चार इन्द्रियाँ पायी जाती हैं उसे चतुरिन्द्रिय एवं जिसमें श्रोत्र सहित पाँचों इन्द्रियाँ पायी जाती हैं उस जीव को पंचेन्द्रिय कहा जाता है। हमें जो पाँच इन्द्रियाँ प्राप्त हुई हैं वे वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियों के रूप में प्राप्त हुई हैं, किन्तु उन्हें हम भोगेन्द्रियों के रूप में अधिक प्रयोग कर रहे हैं। इन्द्रियों से न केवल शब्दादि को जानते हैं अपितु उनसे भोग में अधिक प्रवृत्त होते हैं। उच्छ्वास संसारस्य प्राणी में कम से कम चार प्राण आवश्यक रूप से पाए जाते हैं - (१) स्पर्शनेन्द्रियबलप्राण (२) कायवलप्राण, (३) श्वासोश्वास १. निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् । २. योगी भावेन्द्रियम्। ( ३५ ) -तत्त्वार्थसून २/१७ -वही २/१८
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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