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________________ वैसे शब्द मतिज्ञान भी होता माना गया है है। जीव के आत्म-प्रदेश अमूर्त हैं तथापि उनमें संकोच-विस्तार सम्भव है। जीव को ऊर्ध्वगमनशील इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह कर्ममुक्त होने पर ऊर्ध्वगमन कर लोक के अग्र भाग में स्थित हो जाता है। अपेक्षाविशेष से जीवों को सादि-सान्त, सादि-अनन्त, अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त भी कहा गया है। नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति-आगति की अपेक्षा सादि-सान्त हैं। सिद्ध-जीव गति की अपेक्षा सादि-अनन्त हैं। लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव अनादि-सान्त हैं और संसार की अपेक्षा से अभवसिद्धिक जीव अनादि-अनन्त हैं। द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत है तथा पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है। अजीव द्रव्य जीव द्रव्य के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीव द्रव्य अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं। जीव द्रव्य अजीव द्रव्य पुद्गल को ग्रहण करके उसे शरीर, इन्द्रिय, योग एवं श्वासोच्छ्वास में परिणत करते हैं। प्रथमाप्रथम जीवों में जो भाव या अवस्थाएँ पहले से चली आ रही हैं उनकी अपेक्षा जीवों को अप्रथम तथा जो भाव या अवस्था पहली बार प्राप्त हो उस अपेक्षा से जीवों को प्रथम कहा जाता है। जैसे जीव को जीवभाव पहले से प्राप्त है, अतः वह जीवभाव की अपेक्षा से अप्रथम है, किन्तु सिद्धभाव प्राप्त करने की अपेक्षा से सिद्धजीव प्रथम हैं, क्योंकि उन्हें सिद्धभाव पहले से प्राप्त नहीं था। द्रव्यानुयोग के प्रथमाप्रथम अध्ययन में जीव, आहार, भवसिद्धिक, संज्ञी, लेश्या आदि १४ द्वारों में जीव के प्रथमाप्रथमत्व का जो निरूपण हुआ है वह सामान्य जीव की अपेक्षा से भी है, नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डकों की अपेक्षा से भी है तथा सिद्धों की अपेक्षा से भी है। संज्ञी, संज्ञा और योनि ___ संज्ञा' एवं 'संज्ञी' शब्द भाषागत रचना की दृष्टि से समान प्रतीत होते हैं, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से इनमें महदन्तर है। 'संज्ञी' शब्द का प्रयोग आगम में समनस्क अर्थात् मन वाले जीवों के लिए हुआ है। संज्ञी जीवों में हिताहित का विचार करने का सामर्थ्य होता है। मन के सद्भाव में वे शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण कर सकते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के भाषा पद में सण्णी (संज्ञी) शब्द का प्रयोग शब्द संकेत को ग्रहण करने वाले जीव के लिए हुआ है। इस दृष्टि से जो बालक शब्द संकेत में अर्थ या पदार्थ को नहीं जानता, वह भी एक प्रकार से असंज्ञी ही है। मन का विषय श्रुतज्ञान को माना गया है। श्रुतज्ञान शब्द, संकेत आदि के माध्यम से होता है। मन को अनिन्द्रिय एवं नोइन्द्रिय भी कहा गया है। मन से मतिज्ञान भी होता है। इसलिए मन से होने वाले अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा नामक मतिज्ञान के भेद स्वीकार किए गए हैं। वैसे शब्द के आश्रय से होने वाला जो परिणामात्मक ज्ञान है वह मन के द्वारा ही होता है, इसलिए मन का विषय 'श्रुत' माना गया है। मन मनन एवं विचार का प्रमुख माध्यम है। यह दो प्रकार का प्रतिपादित है-द्रव्यमन और भावमन। द्रव्यमन पुद्गलों द्वारा निर्मित है तथा भावमन तो जीवरूप ही है, वह जीव से सर्वथा भिन्न नहीं है। यहाँ पर जो 'संज्ञी' शब्द का प्रयोग हुआ है वह द्रव्यमन वाले जीवों के लिए हुआ है। इस दृष्टि से गर्भ से एवं उपपात से जन्म लेने वाले पंचेन्द्रिय जीव ही संज्ञी कहे जाते हैं। ___संज्ञा' शब्द का प्रयोग 'नाम' के लिए भी होता है। यह मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में भी परिगणित है तथा अकलंक ने इसे प्रत्यभिज्ञान प्रमाण के अर्थ में ग्रहण किया है। इस प्रकार संज्ञा 'ज्ञान' के अर्थ में भी प्रयुक्त है। किन्तु आगम में आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि की अभिलाषा को व्यक्त करने के लिए संज्ञा शब्द का प्रयोग हुआ है। आहारादि की अभिलाषा से संसारी जीवों को जाना जाता है, इसलिए भी आहारादि को संज्ञा कहा गया है। सामान्यतः संज्ञा के चार भेद हैं-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। चार गति के चौबीस दण्डकों में ये चारों संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं। संज्ञाओं की उत्पत्ति के विभिन्न कारण हैं। ये वेदनीय अथवा मोहनीयकर्म के उदय से भी उत्पन्न होती हैं तथा इनका श्रवण करने के अनन्तर उत्पन्न मति से भी उत्पन्न होती हैं। इनका सतत चिन्तन करते रहने से भी ये उत्पन्न होती हैं। आहारसंज्ञा में पेट का खाली रहना, भयसंज्ञा में सत्त्वहीनता, मैथुनसंज्ञा में माँस-शोणित का अत्यधिक उपचय और परिग्रहसंज्ञा में परिग्रह का स्वयं के पास रहना भी उत्पत्ति में कारण बनता है। संज्ञाओं की उत्पत्ति में कर्मोदय आन्तरिक कारण है तथा पेट खाली रहना आदि बाह्य कारण हैं। संज्ञा अगुरुलघु होती है। संज्ञा की क्रिया का करण संज्ञाकरण तथा संज्ञा की रचना को संज्ञानिवृत्ति कहते हैं। संज्ञा के १0 भेद भी प्रतिपादित हैं। आहारादि चार संज्ञाओं में क्रोध, मान, माया, लोभ, ओघ और लोक संज्ञाओं को मिला देने पर १0 भेद बन जाते हैं। आचारांगनियुक्ति में संज्ञा के १० भेद प्रतिपादित हैं। वहाँ पर इन दस संज्ञाओं में मोह, धर्म, सुख, दुःख, जुगुप्सा और शोक को योजित किया गया है। सकषायी जीवों में आहारादि संज्ञाएँ पाई जाती हैं तथा पूर्ण वीतराग अवस्था प्राप्त होने पर ये संज्ञाएँ नहीं रहती हैं। जीव के जन्म ग्रहण करने के स्थान को योनि कहते हैं। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से योनि के भेद किए जाते हैं। स्पर्श की अपेक्षा योनि तीन प्रकार की है-शीत, उष्ण और शीतोष्ण। चेतना की अपेक्षा उसके सचित्त, अचित्त एवं मिश्र भेद हैं। आवरण की अपेक्षा उसके तीन प्रकार हैं-संवृत, विवृत और संवृत-विवृत। सभी जीव योनि में ही जन्म ग्रहण करते हैं, चाहे वह जन्म उपपात से हो, गर्भ से हो अथवा सम्मूर्छिम हो। जैनागमों में ८४ लाख जीव योनियों का उल्लेख प्राप्त होता है, यथा-सात लाख पृथ्वीकायिक, सात लाख अप्कायिक, सात लाख तेजस्कायिक, सात लाख वायुकायिक, दस लाख प्रत्येक वनस्पति, चौदह लाख साधारण वनस्पति, दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख देवता, चार लाख नारक, चार लाख तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं चौदह लाख मनुष्य। स्थिति _ 'स्थिति' शब्द का प्रयोग आगम में तीन प्रकार से हुआ है-(१) कर्मस्थिति, (२) भवस्थिति और (३) कायस्थिति। ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों की फलदान अवधि को कर्मस्थिति कहा जाता है। प्रायः एक भव में उस गति एवं आयुष्य का बना रहना भवस्थिति माना जाता है तथा (३३)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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