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________________ अजीव पर्याय को रूपी एवं अरूपी-अजीव पर्याय के रूप में विभक्त किया जाता है। इनमें अरूपी अजीव पर्याय के दस भेद हैं(१) धर्मास्तिकाय, (२) उसके देश और (३) प्रदेश, (४) अधर्मास्तिकाय, (५) उसके देश और (६) प्रदेश, (७) आकाशास्तिकाय, (८) उसके देश और (९) प्रदेश और (१०) अद्धासमय। रूपी अजीव पर्याय के चार भेद हैं-(१) स्कन्ध, (२) देश, (३) प्रदेश और (४) परमाणु। रूपी अजीव पर्याय अनन्त हैं क्योंकि परमाणु पुद्गल अनन्त हैं, द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं यावत् अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं। एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गल से द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा तुल्य होता है, किन्तु अवगाहना, स्थिति, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श द्वारों से उनमें भिन्नता रहती है। जीव एवं पुद्गल की अनन्त पर्यायों का तो आगम में स्पष्ट कथन हुआ है, किन्तु धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल की अनन्त पर्यायों पर आगमों में कोई कथन नहीं हुआ है, जो पर्याय के दार्शनिक = चिन्तन पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करता है। परिणाम पर्याय एवं परिणाम में विशेष भेद नहीं है। द्रव्य की विभिन्न अवस्थाओं को जहाँ पर्याय कहा गया है वहाँ पर्याय में परिणमन को परिणाम कहा जा सकता है। 'परिणाम' का निरूपण प्रज्ञापनासूत्र में हुआ है जहाँ परिणाम के जीव एवं अजीव परिणाम भेद करके उनके दस-दस प्रकार बताए गए हैं। जीव परिणाम के दस प्रकार हैं-(१) गति, (२) इन्द्रिय, (३) कषाय, (४) लेश्या, (५) योग, (६) उपयोग, (७) ज्ञान, (८) दर्शन, (९) चारित्र और (१०) वेद। इनमें प्रत्येक के अपने-अपने अवान्तर भेद भी हैं जो कुल ४३ हैं। अजीव परिणाम भी दस प्रकार के हैं-(१) बन्धन, (२) गति, (३) संस्थान, (४) भेद, (५) वर्ण, (६) गंध, (७) रस, (८) स्पर्श, (९) अगुरुलघु और (१०) शब्द परिणाम। अजीव परिणाम में बन्धन के दो अवान्तर भेद हैं-(१) स्निग्ध एवं (२) रुक्ष। गति के भी दो प्रकार हैं-(१) स्पृशद्गति एवं (२) अस्पृशद्गति। दीर्घगति एवं ह्रस्वगति की दृष्टि से भी भेद किए गए हैं। संस्थान परिणाम पाँच प्रकार का है-(१) परिमण्डल, (२) वृत्त, (३) त्र्यंश, (४) चतुरस और (५) आयत। भेद परिणाम भी पाँच प्रकार का है-(१) खण्ड, (२) प्रतर, (३) चूर्णिका, (४) अनुतटिका और (५) उत्कटिका। वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श के क्रमशः पाँच, दो, पाँच एवं आठ भेद प्रसिद्ध हैं। अगुरुलघु एक प्रकार का ही होता है। उसके कोई भेद नहीं हैं। शब्द परिणाम को शुभ एवं अशुभ में विभक्त किया जाता है। इन विभिन्न परिणामों के फलस्वरूप पर्याय बदलती रहती है। जीवाजीव षड्द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पाँच द्रव्य ‘अजीव' हैं तथा एक जीव द्रव्य 'जीव' है। परमार्थतः जीव एवं अजीव द्रव्य पूर्णतः पृथक् हैं। न तो कभी जीव द्रव्य अजीव बन सकता है और न अजीव द्रव्य जीव बन सकता है। किन्तु जीव का अजीव के साथ इस प्रकार का गाढ़ सम्बन्ध है कि अजीव को भी जीव के रूप में व्यवहृत किया जाता है। जीव एवं पुद्गल के गाढ़ सम्बन्ध के कारण शरीर, इन्द्रिय आदि के आधार पर पुद्गल पर भी जीव का आरोप एवं व्यवहार होता ही है। जीव एवं अजीव दोनों शाश्वत हैं। इनमें से कौन पहले हुआ एवं कौन बाद में, इस प्रश्न का उत्तर मुर्गी एवं अण्डे की समस्या के उत्तर की भाँति है और वह यह कि ये दोनों शाश्वत हैं। जीव एवं पुद्गल के पारस्परिक सम्बन्ध के कारण अजीव पुद्गल (देहादि) पर जीव का व्यवहार करना तो साधारण बात है, किन्तु ग्राम, नगर, क्षेत्र आदि को भी वहाँ पर जीवों के रहने के कारण उपचार से कथंचित् जीव (एवं अजीव) कहा गया है। जीव के परिभोग में आने से ये जीव की भाँति व्यवहृत होते हैं। ‘गाँव जल गया' कहने से हम समझते हैं कि गाँव में रहने वाले प्राणी भी जल गए। इस प्रकार ‘गाँव' शब्द जीव को भी अपने अर्थ में सम्मिलित कर लेता है। यही नहीं, जीव के द्वारा व्यवहृत आनप्राण, स्तोक आदि को जीव एवं अजीव दोनों कहा गया है। जीव द्रव्य अध्ययन में जीव के सम्बन्ध में कुछ कहा जा चुका है। यहाँ पर इतना ही विशेष कथन है कि जीव द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत एवं अनादि-अनन्त है। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार-पराक्रम वाला जीव आत्म-भाव से जीवभाव (चैतन्य) को प्रकट करता है। जीव को जैसी देह मिली है उसके अनुसार ही वह अपने आत्म-प्रदेशों का संकोच एवं विस्तार कर लेता है। इसे जैनदर्शन में जीव का देह परिमाणत्व कहा जाता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि जीव स्वयं अपने कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है। किसी ईश्वर के द्वारा कर्मों का फल नहीं दिया जाता। जीव के स्वरूप का वर्णन करते हुए बृहद्रव्यसंग्रहकार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने कहा है "जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई।१ अर्थात् जीव उपयोगमय होता है, अमूर्तिक (अरूपी) होता है, कर्ता एवं भोक्ता होता है, वह स्वदेह परिमाण होता है। स्वभावतः वह ऊर्ध्वगति करता है। संसारस्थ एवं सिद्ध की अपेक्षा वह दो प्रकार का होता है। उपयोगमय होने का तात्पर्य है ज्ञानदर्शनमय होना, क्योंकि ज्ञान को साकारोपयोग एवं दर्शन को निराकारोपयोग कहा गया है। द्रव्यानुयोग के प्रथम भाग में भी यह बात कही गई है कि ज्ञान एवं दर्शन नियमतः आत्मा हैं तथा आत्मा भी नियमतः ज्ञान-दर्शन रूप है। जीव की दूसरी विशेषता है कि वह अमूर्त अर्थात् अरूपी है। शरीर एवं कर्मादि की अपेक्षा से जीव व्यवहार में रूपी है, किन्तु परमार्थतः तो वह अरूपी ही है। जीव एवं सुख-दुःख का स्वयं कर्ता एवं भोक्ता होता है, यह तथ्य उत्तराध्ययनसूत्र में भी स्पष्टरूपेण उल्लिखित है।३ जीव अपने आत्म-प्रदेशों का शरीर के अनुसार संकोच एवं विस्तार कर लेता १. बृहद्रव्यसंग्रह २ २. अरूविणो जीवघणा नाणदसणसन्निया। ३. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। -उत्तराध्ययन ३६/६६ -वही २०/३७ (३२)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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