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________________ उपर्युक्त दण्डकों में पाँच स्थावरों को छोड़कर शेष जीवों की उपलब्धि का अधोलोक से ऊर्ध्वलोक की ओर एक निश्चित क्रम है। नारकी जीव अधोलोक में रहते हैं। भवनपति देव अधोलोक एवं तिर्यक्लोक में रहते हैं। विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, मनुष्य एवं वाणव्यन्तर ज्योतिषी देव तिर्यक्लोक में रहते हैं। वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक में रहते हैं। द्रव्यानुयोग के विभिन्न अध्ययनों को समझने के लिए इन चौबीस दण्डकों का हमें पद-पद पर अवलम्बन लेना पड़ता है। संख्या की दृष्टि से संसार में अनन्त जीव हैं। एक जीव के असंख्यात आत्म-प्रदेश हैं। जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने ही एक जीव के प्रदेश कहे गए हैं। षड्द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय संख्या की दृष्टि से तुल्य हैं तथा षड्द्रव्यों में सबसे अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं, उनसे पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं। उनके अद्धासमय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं। अस्तिकाय छह द्रव्यों में से 'काल' को छोड़कर पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहे जाते हैं। बहुप्रदेशी होने के कारण इन द्रव्यों को अस्तिकाय कहा जाता है। काल अनस्तिकाय है, क्योंकि वह अप्रदेशी है। प्रदेशसमूह का नाम अस्तिकाय है। अस्तिकाय द्रव्य हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) पुद्गलास्तिकाय और (५) जीवास्तिकाय। 'अस्तिकाय' शब्द प्रदेश-समूह के होने का द्योतक है। 'काय' का अर्थ समूह होता है। जो द्रव्य प्रदेश-समूहयुक्त होता है वह अस्तिकाय है। धर्म, अधर्म आदि पाँच द्रव्य अपने प्रदेश-समूहयुक्त होते हैं, अतः ये पाँच अस्तिकाय हैं। काल का कोई प्रदेश नहीं होता। इसलिए वह समूह रूप में नहीं रहता। __षद्रव्यों के विवेचन में अस्तिकाय का भी विवेचन समाहित हो जाता है, किन्तु अस्तिकाय शब्द में कुछ वैशिष्ट्य निहित है। धर्मास्तिकाय से तात्पर्य है सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय। एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जाता। धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेशों का समग्र रूप से जब ग्रहण होता है तभी उसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के भी समग्र प्रदेश गृहीत होने पर उन्हें उन-उन अस्तिकायों के रूप में कहा जाता है। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं तथा आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश कहे गए हैं।' षड्द्रव्यों के निरूपण में धर्म, अधर्म एवं जीव द्रव्य में असंख्यात प्रदेश माने गए हैं तथा आकाश में अनन्त प्रदेश कहे गए हैं। पुद्गल में संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त प्रदेश माने गए हैं। पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी होकर भी अनेक स्कन्ध रूप बहुत प्रदेशों को ग्रहण करने की योग्यता के कारण बहुप्रदेशी होता है, इसलिए उपचार से उसे 'काय' या अस्तिकाय कहा जाता है। ___ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में धर्मास्तिकाय आदि के जो पर्यायार्थक अभिवचन दिए गए हैं, उनसे इन धर्म-अधर्म आदि के अर्थ का व्यापक परिचय मिलता है। धर्मास्तिकाय के अभिवचन में प्राणातिपातविरमण यावत् परिग्रहविरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक आदि को भी स्थान दिया गया है। इनके विपरीत अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं। पर्याय द्रव्य के साथ पर्याय का विचार आवश्यक है, क्योंकि द्रव्य विभिन्न पर्यायों अथवा अवस्थाओं में ही प्राप्त होता है। द्रव्य की अवस्था विशेष को पर्याय कहा जाता है। दर्शनग्रन्थों में द्रव्य के क्रमभावी परिणाम को पर्याय कहा गया है३ तथा गुण एवं पर्याय से युक्त पदार्थ को द्रव्य कहा गया है। दार्शनिक जगत् में एक ही वस्तु की विभिन्न अवस्थाओं को उसकी पर्याय कहा जाता है। जैसे एक ही मनुष्य की बाल, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्धावस्था उसकी पर्यायें हैं। एक ही स्वर्ण की कड़ा, कुण्डल एवं हार उस स्वर्ण की पर्यायें हैं। आगम में पर्याय का यह 'क्रमभावी' अर्थ स्फुटरूपेण प्रयुक्त नहीं हुआ है। आगम में तो एक द्रव्य जितनी अवस्थाओं में प्राप्त हो सकता है, वे अवस्थाएँ उस द्रव्य की पर्यायें कहलाती हैं। जैसे जीव की पर्यायें हैं-नारक, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और सिद्ध। पर्याय को प्रज्ञापनासूत्र में दो प्रकार का प्रतिपादित किया गया है-जीव पर्याय और अजीव पर्याय। पर्याय का गहन विचार किया जाय तो जीव की अनन्त पर्यायें हैं एवं अजीव पर्याय भी अनन्त हैं। पर्याय का लक्षण देते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और वियोग ये पर्यायों के लक्षण हैं। प्रत्येक पर्याय अपने आप में एक एवं अन्य पर्यायों से पृथक् होती है। पर्याय का अन्तर संख्या (अथवा ज्ञान) एवं आकृति के आधार पर भी होता है। संयोग एवं वियोग से भी पर्याय-परिवर्तन होता रहता है, इसलिए इन्हें (एकत्वादि को) पर्याय का लक्षण कहा गया है। प्रज्ञापनासूत्र में जीवों की संख्या के आधार पर जीव पर्याय अनन्त कही गई हैं। दण्डकों के आधार पर प्रत्येक दण्डक के जीव की अनन्त पर्यायों का कथन आगम में (१) द्रव्य, (२) प्रदेश, (३) अवगाहना, (४) स्थिति, (५) वर्ण, (६) गन्ध, (७) रस, (८) स्पर्श, (९) ज्ञान, (90) अज्ञान और (११) दर्शन इन ग्यारह द्वारों के माध्यम से निरूपित किया गया है। १. द्रव्यानुयोग, भाग १, पृ. ३३ २. एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि। बहुदेसो उवयारा तेण य काओ भण्णंति सव्वण्णू॥ ३. पर्यायस्तु क्रमभावी, यथा तत्रैव सुखदुःखादि। ४. गुणपर्यायवद् द्रव्यम्। -द्रव्यसंग्रह २६ -प्रमाणनयतत्त्वालोक ५/८ -तत्त्वार्थसूत्र ५/३८ (३१)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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