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________________ पुद्गल अध्ययन देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। प. जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववाइयत्ते नो अणुत्तरोववाइयत्ते पुणरवि अणुत्तरोववाइयत्ते अणुत्तरोववाइय-वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं संखेज्जाई सागरोवमाई। देसबंधंतर जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई सागरोवमाई। -विया. स.८, उ.९, सु.७५-८१ १२२. वेउब्वियसरीरबंधगाबंधगाणं अप्पाबहुयंप. एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउव्वियसरीरस्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा जाव विसेसाहिया वा? उ. गोयमा ! १. सव्वत्थोवा जीवा वेउव्वियसरीरस्स सव्वबंधगा, २. देसबंधगा असंखेज्जगुणा, ३. अबंधगा अणंतगुणा। -विया. स.८,उ.९, सु.८२ १२३. आहारगसरीरप्पयोगबंधस्स वित्थरओ परूवणं प. आहारगसरीरप्पयोगबंधेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? ( १८८३) देशबन्ध का अन्तर जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का होता है। प. भंते ! अनुत्तरोपपातिकदेवरूप में उत्पन्न जीव (वहाँ से च्यव कर) अनुत्तरोपपातिकदेवों के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए फिर वहाँ से मरकर पुनःअनुत्तरोपपातिक देवरूप में उत्पन्न हो तो अनुत्तरोपपातिक देव के वैक्रियशरीर-प्रयोग बंध का अन्तर कितने काल का होता है? उ. गौतम ! उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक इकतीस सागरोपम का और उत्कृष्ट संख्यातसागरोपम का होता है। उसके देशबन्ध का अन्तर जघन्य वर्षपृथक्त्व का और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम का होता है। १२२. वैक्रिय शरीर के बन्धक-अबन्धकों का अल्पबहुत्वप्र. भन्ते ! वैक्रिय शरीर के इन देशबन्धक, सर्वबन्धक और अबन्धक जीवों में कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं? उ. गौतम ! १. इनमें सबसे थोड़े वैक्रिय शरीर के सर्वबन्धक जीव हैं, उ. गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। प. भंते ! जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्साहारगसरीर प्पयोगबंधे, किं अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे? उ. गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे, नो . अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे।। एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठि- पज्जत्त - संखेज्जवासाउय-कम्मभूमिग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे, २. (उनसे) देशबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं, ३. (उनसे) अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। १२३. आहारक शरीरप्रयोग बन्धका विस्तार से प्ररूपण प्र. भन्ते ! आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम !(आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध) एक प्रकार का कहा गया है। प्र. भन्ते ! यदि (आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध) एक प्रकार का कहा गया है तो वह मनुष्यों के होता है या मनुष्यों के सिवाय (अन्य जीवों के) होता है? उ. गौतम ! मनुष्यों के आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है, मनुष्यों के सिवाय अन्य जीवों को नहीं होता है ? इस प्रकार इसी अभिलाप से (प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें) "अवगाहना-संस्थानपद" में कहे अनुसार यावत् ऋद्धि प्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज-मनुष्य के आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है, परन्तु ऋद्धि रहित प्रमत्त-संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्य के आहारक-शरीर प्रयोग बन्ध नहीं होता है। प्र. भन्ते ! आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है? उ. गौतम ! सवीर्यता, सयोगता और सद्व्यता यावत् (आहारक-लब्धि) के निमित्त से आहारकशरीरप्रयोग नामकर्म के उदय से आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है। प्र. भन्ते ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध होता है या . सर्वबन्ध होता है? णो अणिड्ढिपत्तपमत्त - संजय सम्मद्दिट्ठि पज्जत्त संखेज्ज वासाउय कम्मभूमिग गब्भवक्कंतिय मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे। प. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? उ. गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए जाव लद्धि पडुच्च आहारगसरीरप्पयोगणामाए कम्मस्स उदएणं आहारम सरीरप्पयोगबंधे। प. आहारगसरीरप्पयोग बंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सव्वबंधे?
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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